घर लौटते थोक में कटते मजदूर कोरोना और पूंजीवाद ही नहीं, लोकतंत्र की भी मार झेल रहे हैं

घर लौटते थोक में कटते मजदूर कोरोना और पूंजीवाद ही नहीं, लोकतंत्र की भी मार झेल रहे हैं
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महाराष्ट्र में आज सुबह-सुबह रेलपटरियों पर थककर निढाल होकर सोए हुए प्रवासी मजदूरों पर से मालगाड़ी धड़धड़ाते हुए निकल गई, और करीब डेढ़ दर्जन मजदूर कटकर मर गए। वे जालना के एक कारखाने में काम करते थे, और उन्हें भुसावल से मध्यप्रदेश वापिसी की ट्रेन मिलने की उम्मीद या खबर थी। पूरी रात पटरियों पर चलकर थककर वे सो गए थे क्योंकि उनकी जानकारी के हिसाब से देश भर में रेलगाडिय़ां बंद थीं। थकान इतनी रही होगी कि आती मालगाड़ी की आवाज भी, पटरियों की कंपकपी ने भी उनकी नींद तोड़ी नहीं होगी, और सब गाजा-मूली की तरह कट गए। ये मध्यप्रदेश के शहडोल इलाके से गए हुए मजदूर बताए जा रहे हैं, इस इलाके के आदिवासी मजदूर हमेशा से काम की तलाश में देश के दूसरे हिस्सों में जाते रहे हैं। इसके साथ-साथ उमरिया जिले के मजदूर भी थे जिन्हें अपना प्रदेश देखना नसीब नहीं हो पाया। लॉकडाऊन के पैंतालीस दिनों के बाद भी आज देश भर में घरवापिसी करते मजदूरों का यही हाल है। अब तक दर्जनों और मजदूर सड़कों पर गिरकर मर चुके हैं जिनमें बस्तर की बारह बरस की एक बच्ची भी शामिल है जो तेलंगाना के मिर्च के खेतों से मजदूरी करके लौटते हुए तीन दिन पैदल चलने के बाद मर गई। इस देश में लौटते हुए मजदूरों में से अधिकतर बदन में पानी की कमी से मर रहे हैं, थोक में ऐसी मौतों का आज सुबह यह पहला मामला रहा, जो हो सकता है कि देश में कुछ लोगों का दिल हिला भी सके। 


न चाहते हुए भी लॉकडाऊन के नतीजों और असर पर घूम-फिरकर लिखना पड़ रहा है क्योंकि उसके बिना लिखने की जिम्मेदारी पूरी हो नहीं सकती। आज यह बात समझ में आ रही है कि केन्द्र सरकार के लादे गए इस लॉकडाऊन के लिए राज्य बिल्कुल भी तैयार नहीं थे। न तो राज्यों की ऐसी कोई विशेषज्ञता थी कि करोड़ों लोगों की आवाजाही को सेहत की जांच के साथ जोड़कर वे काबू में रख सकें, उनका इंतजाम कर सकें। न ही करोड़ों लोगों की जांच का इंतजाम राज्यों के पास था, न ही इलाज का। लेकिन इन सबसे बढ़कर करोड़ों मजदूरों के रहने-खाने, और जिंदा रहने की बाकी जरूरी बुनियादी बातों के इंतजाम का तो उनके पास कुछ भी नहीं था। न हुनर था, न ताकत थी, और न ही केन्द्र सरकार ने राज्यों को इस फैसले में किसी भी तरह शामिल किया था। नतीजा यह हुआ कि चार घंटे के नोटिस पर देश भर में रेल-बस सबको बंद कर दिया गया, और लोग फंसे रह गए। राज्यों के ऊपर एक ऐसी जिम्मेदारी आ गई जिससे निपटना उन्हें सीखना भी पड़ रहा है, और युद्ध स्तर पर उसे करना भी पड़ रहा है। जिस राज्य की जितनी क्षमता है, राजनीतिक इच्छा-शक्ति है,  उतना काम हो पा रहा है, और पूरे देश भर से एक बात समझ आ रही है कि हर राज्य अपनी जमीन पर से तो दूसरे राज्य के लोगों को जल्द से जल्द सरहद पार करा देना चाह रहा है, और अपने लोगों को लौटाकर लाने के काम को या तो चाह नहीं रहा है, या फिर प्रतीकात्मक रूप से, अनमने ढंग से कर रहा है ताकि प्रदेश पर न तो अंधाधुंध आर्थिक बोझ आए, और न ही प्रदेश की इलाज की क्षमता चुक जाए। यह सिलसिला इसलिए भी खड़ा हुआ है कि न तो केन्द्र सरकार ने राज्यों को इस फैसले में शामिल किया, न तैयारी में शामिल किया, और न ही इसकी अभूतपूर्व लागत में हिस्सा बंटाया। नतीजा यह है कि आज राज्य अपने सीमित साधनों को देखते हुए जो कर पा रहे हैं, और उस सीमा के भीतर जो सचमुच ही करना चाह रहे हैं, वही कर रहे हैं। 


नतीजा यह है कि लॉकडाऊन के करीब डेढ़ महीने बाद मजदूर अब तक घर जाने के रास्ते पर हैं, हम छत्तीसगढ़ में ही रोजाना ट्रकों पर सामानों के ऊपर लदे हुए मजदूरों को देख रहे हैं, और आम लोगों के लिए भी यह सोच पाना आसान नहीं होगा कि तपती दुपहरी में लोहे के गैस सिलेंडरों से लदी ट्रक के ऊपर उन सिलेंडरों पर बैठे हुए मजदूर अगर पूरे-पूरे दिन का सफर कर रहे हैं, और उसे पैदल सफर के मुकाबले एक राहत मान और पा रहे हैं, तो यह इस लोकतंत्र के इतिहास में एक काला दिन है जब लोग घरों में बंद एयरकंडीशंड आराम में शिकायत कर रहे हैं, और करोड़ों लोग इस तरह सफर कर रहे हैं। यह उन पर महज कोरोना की मार नहीं है, उनसे कहीं अधिक यह लोकतंत्र की मार है जिसने यह साबित कर दिया है कि सत्ता के पसंदीदा तीर्थयात्री एक अलग दर्जे के हिन्दुस्तानी हैं जिनको ले जाने के लिए एयरकंडीशंड बसें हैं, अलग-अलग राज्य सरकारों की बसें हैं जो कोटा में लाखों रूपए सालाना खर्च करके कोचिंग पा रहे बच्चों को वापिस ला रही हैं, लेकिन तपती गर्मी में गर्भवती महिलाओं, दुधमुंहे बच्चों, और बुजुर्गों को लेकर सफर करते लोगों के लिए सामाजिक संगठनों द्वारा कहीं-कहीं मिल जा रहे खाने के पैकेट हैं। आज राज्य सरकारें भी मोटेतौर पर इन मजदूरों को कहीं-कहीं पर रोक रही हैं, तो वह मजदूरों को राहत देने के लिए कम, और अपने राज्य को बीमारी से बचाने के लिए ज्यादा है। ऐसे में मजदूरों का जत्था, घरवापिसी के लिए पटरियों पर चलते-चलते, पूरी रात चलते जब थककर वहीं सो गया, तो इस लोकतंत्र ने उनके टुकड़े-टुकड़े कर दिए। 


यहां लिखी कई बातों पर हम पिछले दिनों में कई बार लिख चुके हैं, लेकिन रोज ही ऐसी मौतें सामने आ रही हैं, रोज ही नेताओं के श्रद्धांजलि नाम के पूरी तरह खोखले शब्द हवा में गूंज रहे हैं, जो कि जिम्मेदारी की जगह श्रद्धांजलि का काम कर रहे हैं। यह देश पिछले दो महीनों में लोकतंत्र को जितने हिंसक और वीभत्स रूप में देख चुका है, उससे यह बात साफ है कि जब देश-प्रदेश की सत्ता हांकने वाले लोग करोड़पतियों से बढ़कर अरबपति और खरबपति हो जाते हैं, जब उनके दोस्त केवल खरबपति रह जाते हैं, तब भूख, प्यास, धूप, फफोले, बच्चों का दूध जैसे शब्दों के मायने वे भूल जाते हैं। यह लोकतंत्र इतना खतरनाक हो गया है कि यह बहुमत का तय किया हुआ हिंसातंत्र हो गया है, यह लोकतंत्र सत्ता की आंखों में जनता की अनदेखी का तंत्र हो गया है। यह लोकतंत्र अब दो अलग-अलग तबकों का हो गया है, एक वह जिसके पास लॉकडाऊन के लिए आरामदेह घर है, और दूसरा वह तबका जिसके पास अपने घर पहुंच जाने की दहशत में मौत तक का सफर है। 


हमको इस मौके पर एक और बात पर हॅंसी आती है, इस देश के तमाम ईश्वर अपने-अपने घरों में कपाट बंद करके बैठ गए हैं, और हो सकता है कि भीतर वे मास्क भी लगाकर बैठे हों। और जिस देश की अमूमन आस्थावान जनता ईश्वर के नाम पर धोखा खाते आई है, वह आज भी उसी ईश्वर का नाम लेते हुए यह सफर कर रही होगी, जबकि यह बात जाहिर है कि किसी धर्म के किसी ईश्वर ने भी ऐसा मुश्किल सफर कभी नहीं किया होगा। इस देश के आज के नेताओं में से भी किसी ने न कभी ऐसा मुश्किल सफर किया होगा, न अपने मां-बाप और बच्चों को इस तरह मरते देखा होगा, न ही उनमें से किसी की संतानें ऐसे में सड़क किनारे पैदा हुई होंगी, और जिनके दिमाग से महाराष्ट्र की आज की डेढ़ दर्जन लाशें भी शायद शाम तक हट चुकी होंगी। ऐसे लोकतंत्र में आज हिन्दुस्तानी गरीब मजदूर, और उसके कुनबे महज कोरोना से नहीं लड़ रहे, वे पूंजीवादी अर्थव्यवस्था से लड़ रहे हैं, और सरकारों की अनदेखी से भी लड़ रहे हैं, खासकर केन्द्र सरकार की।


@ सुनील कुमार Sunil Kumar