धिक्कार है उस अर्थ व्यवस्था पर
जो श्रमिकों के बर्बर शोषण पर टिकी है
देश की केंद्रीय सत्ता पर पुनरुत्थानवादी शक्तियां काबिज हैं. वे मानव जाति के इतिहास को फिर उस युग में ले जाना चाहती हैं जब मुट्ठी भर आबादी बहुसंख्यक आबादी का बर्बर शोषण कर मौज करती थीं. सामंत अपने रैयतों से बेगार कराना अपना नैसर्गिक अधिकार मानता था. उन्होंने इसके लिए एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था का ही नियमन किया जिसे वर्ण व्यवस्था के रूप में हम आज भी देखते हैं.
इस व्यवस्था का मूल में था यह तथ्य कि हर तरह का शारीरिक श्रम पिछड़ी और दलित जातियां ही करेंगी. लेकिन मशीनों के आगमन और पूंजीवाद के उदय के साथ सामंती व्यवस्था टूटी. क्योंकि पूंजीवादी व्यवस्था को ऐसे श्रमिकों की जरूरत थी जो सामंतवादी जकड़न से मुक्त और अपना श्रम बेचने के लिए स्वतंत्र हो. लेकिन पूंजीवादी व्यवस्था में भी श्रमिकों का शोषण जारी रहा और है.
आजादी के पहले नील की खेती करने वाले नील्हें जमींदारों ने या फिर असम के चाय बगान के मालिकों के हित के लिए अंग्रेजों ने ऐसे कानून बनाये जिससे उनका शोषण और उत्पीड़न जारी रहा. बंगाल रेगुलेशन सेवन, 1889, जिसके तहत चाय बगान के अंग्रेज मालिक श्रमिकों के साथ पांच वर्षों के लिए अनुबंध करते थे, और उस दौरान उनकी स्थिति गुलामों जैसी ही होती थी. 1863 में ट्रांसपोर्ट आॅफ नेटिव लेबरर एक्ट बना जिसके तहत विशेष पुलिस बल की भी व्यवस्था की गयी ताकि मजदूरों को जिला विशेष में कैद कर रखा जा सके.
इन दो कानूनों की चर्चा यहां इसलिए की गयी कि इस बार कोरोना महामारी के बीच डिजास्टर मैनेजमेंट एक्ट 2005 का इस्तेमाल कुछ उसी तरह मजदूरों को कुचलने के लिए किया जा रहा है. लाॅक डाउन की घोषणा होते ही प्रवासी श्रमिकों को मालिकों ने बिना पिछला वेतन दिये निकाल बाहर किया, उन्हें जहां तहां अमानवीय परिस्थितियों में रहने के लिए मजबूर किया गया. पुलिस उन पर इस तरह डंडे बरसाती हैं मानों वे लोकतांत्रिक देश के नागरिक न हो कर गुलाम हों और अब अर्थ व्यवस्था में सुधार के नाम पर तमाम श्रम कानूनों को खत्म कर श्रमिकों के बर्बर शोषण की तैयारी हो रही है.
श्रम कानूनों को स्थगित कर वे दरअसल जिन कानूनों को खत्म करने की मांग कर रहे हैं, वे हैं- द फैक्ट्रीज एक्ट, 1948, द मिनिमम वेजेज एक्ट, 1948, द इंडस्ट्रीयल एस्टेबलिस्मेंट एक्ट, 1946 और ट्रेड यनियन एक्ट, 1926. यहां याद दिलाना जरूरी है कि काम की अवधि आठ घंटे, न्यूनतम वेतन की गारंटी या फिर यूनियन बनाने के अधिकार के लिए श्रमिकों ने सैकड़ों वर्षों तक दुनिया भर में संघर्ष किया. आजादी की लड़ाई के समानांतर ट्रेड यूनियन मूवमेंट हमारे देश में चलता रहा और उसके परिणाम स्वरूप ही तमाम श्रम कानून अस्तित्व में आये और आजादी के बाद कानूनी शक्ल ले सके.
अब मोदी सरकार एकबारगी उन कानूनों को रदद करने के फिराक में है. इस लिहाज से कोरोना संकट वास्तव में उनके लिए एक अवसर बन गया है. पिछले कुछ दिनों से पर्वासी मजदूर जिस तरह से अमानवीय परिस्थितियों से गुजार रहे हैं, सड़क दुर्घटनाओं और रेलवे लाईनों पर कट रहे हैं, सैकड़ों किमी की पैदल यात्रा कर अपने गुह प्रदेशों में लौटने की जद्दोजहद कर रहे हैं, वह हालिया इतिहास की सबसे बड़ी मानवीय त्रासदी है. बीस लाख करोड़ के आर्थिक पैकेज में करीबन 8 करोड़ प्रवासी श्रमिकों के लिए सरकार ने पांच किलों चावल और एक किलो दाल प्रतिमाह की व्यवस्था की है. क्या है उसका भौतिक मूल्य? दो-ढाई सौ रूपये. यह मजाक नही ंतो क्या है?
और कारखानेदार, उद्योग धंधों के बेशर्म मालिक क्या चाहते हैं? श्रमिकों का बकाया वेतन एकमुश्त देने के लिए, न्यूनतम वेतन देने के लिए राज्य सरकारें उन्हें मजबूर न करें. दुनिया में सबसे सस्ता मानवीय श्रम भारत में है. कारपोरेट जगत को इसी सस्ते श्रम, मिट्टी के मोल बिकने वाले कोयला व अन्य अयस्कों तथा आदिवासी से छीनी गयी जमीन का प्रलोभन देते रहते हैं.
तो, यदि यह उनके लिए एक अवसर है तो मेहनतकशों के लिए भी एक अवसर कि वे धर्म, जाति और नस्ली भेदभाव से उबर कर एकजुट हों और अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करें. जल, जंगल, जमीन पर अधिकार की अपनी बुनियादी लड़ाई को फिर से तेज करें. पलायन न करें, अपने गांव घर में रह कर अपने परिवेश को संवारें, जल, जंगल, जमीन की लूट का प्रतिकार करें. उन राजनीतिक ताकतों से लोहा लें जिनके लिए वे सिर्फ सत्ता में पुहंचने का जरिया हैं, जिन्हें उनके दुख दर्द से कोई मतलब नहीं.
और यह अर्थ व्यवस्था ढ़ह ही जाये तो उससे क्या फर्क पड़ता है. बहुसंख्यक आबादी को उसने विस्थापन और पलायन का दर्द दिया है. इसमें श्रम की प्रतिष्ठा नहीं. हमे तो एक ऐसी व्यवस्था बनानी है जो खैरात पर जिंदा न रहे. जहां श्रम की प्रतिष्ठा हो और मनुष्य के आंसुओं का मोल. आईये इसके लिए कृतसंकल्प हों.
विनोद कुमार