ये है अफ़ीम का ओवर डोज़

धर्म की ध्वजा जब ज़ाहिलों के हाथ में होगी तो वे समाज को ज़ाहिल ही बनाएंगे और इस अवधारणा को बल देते रहेंगे कि धर्म मनुष्य को वैज्ञानिक चेतना से विरत करता है। हालांकि, अपने मौलिक स्वरूप में आम तौर पर कोई भी धर्म ज़ाहिलपना तो नहीं ही सिखाता।


11 मार्च को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कोरोना को वैश्विक महामारी घोषित किया और यह कहते हुए संगठन के अध्यक्ष ने अफसोस ज़ाहिर किया कि देर सबेर तमाम देशों को अपनी चपेट में लेने वाले इस प्राणघातक वायरस के प्रति लोगों में सतर्कता का अभाव है। उन्होंने लोगों से अपील की कि वे समूह में एकत्र नहीं हों क्योंकि इससे संक्रमण बढ़ेगा ही बढ़ेगा।


कोरोना संक्रमण के बढ़ते भय, दुनिया भर में मौतों की बढ़ती संख्या और डब्ल्यूएचओ की इस घोषणा के बावजूद किसी तबलीगी ज़मात ने देश-विदेश के हजारों लोगों को किसी मस्जिद में एकत्र किया और कई दिनों तक चलती रहने वाली धर्म चर्चा का आयोजन किया।


नतीजा यही होना था जो अब सामने आ रहा है। संक्रमित लोगों का ग्राफ अचानक से बढ़ गया है और इनमें अधिकतर उनके ही नाम जुड़ रहे हैं जिन्होंने अज्ञान के अंधकार को मिटाने और धर्म का प्रकाश फैलाने के लिये विज्ञान के निर्देशों की अवहेलना की थी।


यह सिर्फ विज्ञान की अवहेलना ही नहीं थी बल्कि जारी दिशानिर्देशों को देखते हुए मानवद्रोही आयोजन था जिसके जिम्मेवार लोगों को कड़ी से कड़ी सजा दी जानी चाहिये। 


नहीं, कोरोना संकट के इस दौर में किसी एक धर्म के ज़ाहिल धर्मगुरुओं को निशाने पर लेने का कोई मतलब नहीं है। बेकाबू होते संक्रमणों के बीच सबने एक-एक कर अपना प्रतिगामी रूप दिखाया है।


19 मार्च को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राष्ट्र के नाम संदेश में लोगों से 'सोशल डिस्टेंसिंग' की अपील कर रहे थे, 22 मार्च को जनता कर्फ्यू का आह्वान कर रहे थे जबकि ठीक उसी दौरान 21 मार्च को न्यूज चैनलों पर दो धर्मध्वजाधारियों के वीडियो वायरल हो रहे थे जिसमें वे प्रधानमंत्री की अपीलों और विश्व स्वास्थ्य संगठन के निर्देशों के ठीक उलट पाठ लोगों को पढा रहे थे।


प्रतिष्ठित महंत नृत्यगोपाल दास लोगों का आह्वान कर रहे थे कि वे आगामी रामनवमी में पिछले वर्षों की तरह ही अयोध्या में बड़ी संख्या में जुटें क्योंकि... "रामनवमी में होने वाली भीड़ अलग है और यह बीमारी अलग है और दोनों का आपस में कोई संबंध नहीं है।"


ठीक उसी दिन वायरल एक वीडियो में शाही इमाम भी निश्चयात्मक लहज़े में लोगों को कह रहे थे..."नमाज़ तो ज़मात में ही होगी।"


यूरोपीय देशों में कोरोना संक्रमण फैलाने में चर्च भी पीछे नहीं रहा है। वैज्ञानिक दिशा निर्देशों की अवहेलना करते हुए फ्रांस, जर्मनी, इटली आदि देशों में चर्च ने ऐसे आयोजन किये जिनमें लोगों का अच्छा खासा जमावड़ा लगा और बहुत सारे लोग  कोरोना संक्रमित हो कर लौटे।


ईरान में कोरोना संकट गहराने की पृष्ठभूमि में वहां के धार्मिक नेताओं की भूमिका तो जगजाहिर है, जिन्होंने पहले तो वैज्ञानिकों की चेतावनियों का मजाक उड़ाया और जब लोगों की जान पर बन आई तो उन्हीं वैज्ञानिक निर्देशों का पालन करने को विवश हुए।


क्या मंदिर, क्या मस्जिद, क्या चर्च...सबके मठाधीशों ने इस जानलेवा महामारी के दौरान अपना प्रतिगामी रूप ही दिखाया और इस धारणा को पुष्ट किया कि मानव समुदाय को अगर प्रगति की राह पर चलना है तो धर्म के शिकंजे से बाहर निकलना होगा।


क्या वाकई अपने मौलिक और सच्चे रूप में धर्म ऐसा ही है जैसा इन धर्मगुरुओं ने इसे बना दिया है?  यह तो धर्मवेत्ता ही बताएंगे। आम मनुष्य तो यही देख रहा है कि आज जब इतने बड़े संकट में विज्ञान उनके प्राण बचाने की हर सम्भव कोशिश कर रहा है तो धर्म उनके प्राण लेने पर तुला है।


धर्म का विज्ञान से विरोध का कोई औचित्य नजर नहीं आता लेकिन सदियों से धार्मिक व्याख्याकारों और धर्म गुरुओं ने इसे वैज्ञानिक चेतना के बरक्स खड़ा कर प्रगति विरोधी, प्रकारान्तर से मानव विरोधी काम ही किया है।


16वीं शताब्दी में इटली के वैज्ञानिक ब्रूनो को चर्च ने इसलिये ज़िन्दा जला दिया क्योंकि उन्होंने कोपरनिकस के उन खगोलीय सिद्धांतों का समर्थन किया था जो वैज्ञानिक गणनाओं और प्रयोगों पर आधारित थे। इस दुष्कृत्य में तत्कालीन पोप भी शामिल थे। 


समय ने कोपरनिकस और ब्रूनो जैसों को सही ठहराया लेकिन पोप और चर्च की सत्ता तब भी बनी रही। हालांकि, उन्हें सम्मान देते रहने के बावजूद यूरोपीय समाज ने उनकी प्रतिगामिता को पहचाना और अपनी धारणाओं को वैज्ञानिक आधार पर समायोजित किया।


धर्म की प्रतिष्ठा के बावजूद यूरोप का एक विकसित वैज्ञानिक समाज बनना उन एशियाई या अफ्रीकी देशों के लिये उदाहरण नहीं बन सका जो प्रतिगामी धार्मिक मूल्यों से ही चिपके रहे...अंततः हर मायने में यूरोप से पिछड़ते रहे। यहां तक कि,जैसा इतिहासकार हमें बताते हैं, सदियों की यूरोपीय गुलामी के पीछे एशियाई-अफ्रीकी समाजों में व्याप्त धार्मिक जड़ता भी एक महत्वपूर्ण कारक के रूप में विद्यमान रही।


उत्तर कोरोना दौर की दुनिया संकट के समय में धर्म के इन ध्वजाधारियों की घोर अवैज्ञानिक बातों को कैसे भूल सकती है जिनके कारण अनुयाइयों की जान पर बन आई...जिनके कारण अनगिनत जानें गईं? 


हालांकि, संकट टलने के बाद ईश्वर गृहों के बंद कपाट फिर खुलेंगे, जीवन जगत की उलझनों से त्रस्त मानवता फिर उनके द्वार पर कतारबद्ध हो करबद्ध खड़ी होगी। होगी ही, क्योंकि ईश्वर के प्रति मानव की अगाध आस्था किसी एक संकट से डिग जाए, यह संभव नहीं। लेकिन, धार्मिक मठाधीशों की विश्वसनीयता पर इस संकट ने गम्भीर प्रश्न तो उठाए ही हैं।


दोषी ईश्वर नहीं, हम हैं जिन्होंने धर्म की, ईश्वर की गलत व्याख्या करने वालों को अपने सिर माथों पर बिठाया। समय आएगा और लोग समझ पाएंगे कि... जो विज्ञान के विरुद्ध है, जो मनुष्य के विरुद्ध है वह ईश्वर के भी विरुद्ध है।


कबीर भी तो यही कहते थे न।


Hemant Kumar Jha