#पत्थर_गुरु : संघर्ष के चालीस साल

#No_Surrender
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#पत्थर_गुरु : संघर्ष के चालीस साल
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वैचारिक प्रतिबद्धता के बल पर तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद वह जूझते रहे. इस लड़ाई में अपनों ने भी उनका साथ छोड़ दिया. इसी शहर बनारस में..! उन्होंने अंतिम सांस ली और तब अपने लोग भी साथ नहीं थे.


विचारों की लड़ाई इतनी आसान नहीं होती है. उनका नाम राजेंद्र प्रसाद था, लेकिन पत्थर गुरु के नाम से चर्चित थे. दशाश्वमेध पर वृहस्पति मंदिर के पास उनकी मूर्तियों की दुकान थी. वह खुद एक शिल्पकार थे. युवावस्था में ही वह वामपंथी आंदोलन से जुड़ गए. दुकान के प्रति उपेक्षा के भाव के कारण परिवार वालों की नाराजगी का भी उन्हें सामना करना पड़ा.


पत्थर गुरु से पहली मुलाकात हमारी कब और कहां हुई थी ? यह मुझे ठीक से याद नहीं है. कभी-कभी वह हमारे अखबार के दफ्तर में समाचार देने आते थे. कचहरी या सड़क पर आयोजित धरना-प्रदर्शन के दौरान भी उनसे अक्सर मुलाकातें हो जाती थीं. उनसे जब भी मुलाकात हुई वह मुस्कराते हुए मिले.


हम जानते थे कि इस मुस्कराहट के पीछे एक दर्द छिपा है. उस दर्द को वह कभी सामने नहीं आने दिए. दशाश्वमेध पर जहां उनकी दुकान थी वह वामपंथियों का अड्डा बन गई थी. उनके दुकान के सामने सीपीएम का कार्यालय था. वह नक्सवाड़ी आंदोलन से प्रभावित होकर भाकपा (माले) से जुड़ गए. इसी दौरान उनकी मुलाकात कामरेड विनोद मिश्र से हुई. उन मुलाकतों के बारे में हम बाद में चर्चा करेंगे.


यहां यह बता दें कि जिंदगी में आए तमाम तूफानों के बावजूद पत्थर गुरु ने कभी आत्मसमर्पण यानी सेरेंडर नहीं किया. अंतिम समय में वह सारनाथ वृद्ध आश्रम में चले गए और वहीं चार दिन पहले उन्होंने अंतिम सांस ली. जिंदगी में कई बार वह जेल गए. कई रातें बिना रोटी के सड़क पर गुजार दिए. जीवन के अंतिम समय में उनकी पार्टी माले ने भी उनका साथ छोड़ दिया. पार्टी से उन्हें निकाल दिया गया था. वही सारनाथ जहां गौतम बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी.


अंतिम बार हमारी उनसे मुलाकात गोदौलिया चौराहे के पास हुई थी. गर्मी का मौसम था और वह माथे पर एक गमछा बांधे तनकर खड़े थे. चेहरे पर वही चिरपरिचित मुस्कान..! पत्थर गुरु ऐसे ही नहीं कोई बन जाता है. इस महान क्रांतिकारी को मेरा सलाम..! वह हमेशा शोषण, अन्याय व दमन के खिलाफ मोर्चे पर डटे रहे. उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि...!
                                       #सुरेश_प्रताप