भूख़
शरीर में बसती
दिमाग़ में उठती
पेट में मचलती
कभी न बुझती
जलती-जलाती
चलती-चलाती है
वह रोज़ कमाता
रोज़ खाता
शहर अचानक रुक गया
चल पड़ा अनंत यात्रा पर
ख़ाली पेट लड़खड़ाते पैर
शरीर पस्त
दिमाग़ सुन्न
पेट पीठ से चिपका
साँस थमने लगी
वह चिल्लाया “भूख”
कहाँ है तू
निर्लज्ज करमजली
जिलाती नहीं जलाती है
मरती नहीं मारती है
कहाँ है तू
सामने आ
में तुझे खा जाऊँगा
पेट में ऐठन
पैरों में कंपन
सूखे हाथ उठाकर
वह चिल्लाया
कहाँ है मेरा निवाला
मौत हँसी
मुस्करा कर बोली
तेरा निवाला
राजनीति खा गई
तू है मेरा निवाला
लोग भूख से मरेंगे
तब मेरे पेट भरेंगे
सुरेश पटवा Suresh Patwa