भगवान महावीर जयंती
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ओशो महावीर के संन्यास की अनूठी कथा सुनाते हैं। कहते हैं, महावीर संन्यास लेना चाहते थे। माता-पिता से बात की तो उन्होंने स्नेहवश कहा कि हमारे जीते जी कैसे आज्ञा दे सकते हैं। महावीर ने आगे कुछ नहीं कहा। पिता की मृत्यु हो गई, कुछ समय बाद मां भी गुजर गईं। अंतिम संस्कार से लौटते समय बड़े भाई से पूछा, क्या अब मैं संन्यास ले सकता हूं? उन्होंने कहा, माता-पिता दोनों नहीं रहे और तुम भी चले जाना चाहते हो। ऐसा कैसे? महावीर ने कुछ नहीं कहा, लेकिन अब वे इस तरह निस्पृह हो गए, जैसे घर में होकर भी कहीं हो ही नहीं। अंतत: भाई को ही कहना पड़ा, अब इन्हें रोकना फिजूल है।
महावीर की परिभाषा में किसी के बारे में बुरा सोचना भी हिंसा है। फिर किसी को क्लेश देने से बड़ा महापातक क्या हो सकता है। उनके संन्यास लेने का तरीका ही सबकुछ कह देता है कि महावीर नर से नारायण तक की अनूठी और संसार की दुर्लभतम घटना है। यही उन्हें विलक्षण बनाती है, अवतार परंपरा के विरुद्ध एक नई मिसाल गढ़ती है। उनकी जीवन यात्रा एक मनुष्य के देवत्व की यात्रा है, जो विश्वास जगाती है कि सिर्फ पारलौकिक शक्तियां ही मानवीय सीमाओं के अतिक्रमण को प्रेरित नहीं करती है। सामान्य मनुष्य भी इन परिधियों से बाहर निकलकर एक नया वितान रच सकता है।
उनके बचपन का एक और किस्सा है। बताते हैं वर्धमान दोस्तों के साथ खेल रहे थे, तभी एक हाथी वहां आ धमका। जो सामने नजर आता उसे रौंदने लगा, सूंड के रास्ते में आने वालों को उठाकर पटक दिया। सारे दोस्त भाग खड़े हुए। वर्धमान अडिग़ रहे। हाथी ने सूंड फैलाई तो उसी से उसके शीश पर चढ़ गए। स्नेह से उसके सिर पर हाथ फेरा, हाथी को वश में कर लिया। इसी निर्भीकता ने उन्हें महावीर बनाया। चुनौतियों का हाथी रोजमर्रा की जिंदगी में हरदम उत्पात मचाता रहता है। सब रौंदने पर आमादा रहता है। हार के डर की सूंड पर सवार होकर चुनौतियों को अनुकूल किए बगैर आत्मोन्नति की कोई राह शुरू कैसे हो सकती है।
इसलिए महावीर का धर्म कर्मकांड के बजाय स्वअनुशासन पर बल देता है। उनके पांच सिद्धांत आत्मानुशासन की कठोरतम चुनौती पेश करते हैं। वे मनुष्य को किसी शक्ति के भरोसे नहीं छोड़ते। उसे आकाशीय अनुकम्पा की राह देखने के लिए तैयार नहीं करते। बल्कि खुद को बेहतर बनाने के लिए प्रेरित करते हैं। अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करने के लिए उत्प्रेरित करते हैं। खुद के विकास की यात्रा के लिए तैयार करते हैं। आत्मोत्थान का मार्ग प्रशस्त करते हैं।
वे कहते हैं अहिंसा, सयंम और तप ही धर्म है। यानी, खुद को इन कसौटियों पर झोंक दीजिए। सामान्य बुद्धि से भी समझ सकते हैं कि हर स्थिति में अहिंसक होने के लिए कितने संयम की आवश्यकता होगी और अपने आप पर अंकुश रखने से बड़ा तप क्या हो सकता है। यहीं आकर अहिंसा, संयम और तप तीनों एक ही माला के फूल नजर आते हैं।
महावीर अहिंसा के साथ ही सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह पर जोर देते हैं। इन पांचों से बड़ा आत्मानुशासन और क्या हो सकता है। क्षमा, त्याग, प्रेम, करुणा, शील और सदाचार यही उनके प्रवचनों का सार है। हर स्थिति में वे धर्म को खुद पालन करने का विषय बताते हैं। उनके सिद्धांत क्रियाशील हैं और निवृत्ति के लिए भी वे कर्म में प्रवृत्त करते हैं।
उनके लिए परमात्मा आकाशीय शक्ति का अवतरण नहीं है। वह आत्मा का ही क्रम विकास है, विस्तार है, परिष्कृत और परिमार्जित स्वरूप है। वे खुद को मांझकर उस लायक बनाने की प्रेरणा देते हैं। इसलिए ही वे तत्वों के अलग-अलग गुण-दोषों को भी मान्यता देते हैं। स्वीकार करते हैं कि सृष्टि में परस्पर विरोधी गुण साथ रहते हैं। किसी एक दृष्टिकोण से देखने पर पूर्ण सत्य नहीं जाना जा सकता। यह स्वीकारोक्ति सोच के दायरे को आकाश से भी विस्तृत कर देती है। यही महावीर का अनेकांतवाद है, जो सत्य और यथार्थ के भिन्न-भिन्न कोणों को स्वीकार करता है। नर से नारायण की यात्रा का सूत्रपात करता है।
अवतार परंपरा संभवत: इसलिए ही गढ़ी गई होगी ताकि इन महान विभूतियों के अतिमानवीय कार्यों को किसी तरह जस्टीफाई किया जा सके। खुद को बचाया जा सके कि वे ऐसा कर पाए क्योंकि अवतारी थे, देवात्मा थे, मैं साधारण मनुष्य हूं, अपनी अतिसीमित शक्तियों और सामथ्र्य के साथ क्या कर सकता हूं। अपनी कमजोरी और अकर्मण्यता पर आलस्य का चादर ढंकने का इससे बेहतर तरीका और क्या हो सकता है।
महावीर नर के नारायण हो जाने को पारलौकिक घटना नहीं बनाते। बल्कि अहिंसा, सयंम और तप से खुद साकार करके दिखाते हैं। ऐसी ही यात्रा का प्रतिबिम्ब राम, कृष्ण और तथागत में भी पूर्ण चंद्र की तरह दमकता नजर आता है।
ll जय जिनेन्द्र ll
* अहिंसा परमो धर्म : *
* जियो और जीने दो *