कुछ जरूरी सिखा-समझा रहा है, कोरोना

कोविड-19’ के इस नामुराद ‘लॉक डाउन’ में कुछ ऐसे बदलाव भी हुए हैं जिन्हें हम चाहें तो मजबूरी की बजाए मजे से मंजूर कर सकते हैं। मसलन-घरेलू कामकाज निपटाने में स्त्रियों की बजाए पुरुषों की भागीदारी बढी है और आजकल सोशल मीडिया पर इस तरह की अनेक फोटुएं नमूदार हो रही हैं जिनमें घर के पुरुष बर्तन मांजते, झाडू-पोंछा लगाते, नाश्ता और कभी-कभी भोजन बनाते दिखाई दे रहे हैं। आमतौर पर परोक्ष और कभी-कभार प्रत्यक्ष रूप से पुरुषों के इन वीरोचित गृह-कार्यों पर नाक-भौं भी सिकोडी जा रही हैं, लेकिन क्या  इसे अपनी मर्दानगी का, पैसे कमाने के दर्जे का आमफहम काम माना जा सकता है? क्या  हम इस संकट-काल में अपेक्षाकृत कम हैसियत के माने गए घरेलू और बाहरी सहयोग के कामकाज करने वालों की कीमत पहचान  पा रहे हैं? अपने काम आप करने की इस मजबूरी के पहले आखिर ‘डॉमिस्टिक हैल्प’ अर्थात घरेलू कामकाज करने वाले स्त्री-पुरुष ही तो इन्हें निपटाया करते थे? क्या संकट के इन दिनों में हमें उनकी अहमियत महसूस हो रही है?


‘लॉक डाउन’ को देर-सबेर निपट जाने वाला संकट न मानते हुए इस दौर में कुछ अच्छी आदतें सीख लेना यूं तो कोई बुरा भी नहीं है, लेकिन रोजमर्रा की आम-फहम आदतों की तब्दीली कई बुनियादी सवालों की तरफ इशारा करती हैं। मसलन-क्या हम अब तक अपने और अपने शहरों के जीवन में ‘मलिन’ या झुग्गी बस्तियों में रहने वाले लोगों की भूमिका से वाकिफ थे? ये रोज दिखाई देने वाली वे ही बस्तियां हैं जिन्हें कोरोना-पूर्व-काल में हम ही शहर के बदनुमा दाग, गंदगी और अपराधों का परनाला कहा-माना करते थे। ‘कोरोना काल’ में हमें पता चल रहा है कि शहरों की सर्वाधिक गरीब आबादी हमारे कितने काम की है। पुलिस-प्रशासन की नजरों में अपराध-अव्यवस्था और पडौसी मध्यमवर्गीय बसाहटों में गंदगी का भंडार मानी जाने वाली ये बस्तियां किसी भी शहर को ‘चलाए’ रखने के लिए क्या-कुछ नहीं करतीं? अल-सुबह से बच्चों  के स्कूल, साफ-सफाई, बर्तन-रोटी-चौका आदि से लगाकर दफ्तरों, कार्यस्थलों तक पहुंचने-पहुंचाने में इन ‘बेचारे’ झुग्गी-वासियों की भूमिका ‘कोरोना-काल’ में महसूस की जा सकती है, लेकिन क्या हम यह भी कभी जान पाएंगे कि किसी शहर की ‘जीडीपी’ (सकल घरेलू उत्पाद) में उनका क्या योगदान है? यदि ऐसा हो सका तो संभवत: ‘मलिन बस्तियां’ और उनकी बसाहट थोडे ऊंचे दर्जे की हैसियत पा सकेंगी। 


इन दिनों इन्हीं  झुग्गी बस्तियों के ढेरों-ढेर लोग हमें कई-कई सौ किलोमीटर चलकर अपने-अपने घरों की ओर बगटूट भागते नजर आ रहे हैं। कहा जा रहा है कि करीब 40 करोड ऐसे लोग अंतरराज्यीय विस्थापन कर रहे हैं जिनमें छह करोड 20 लाख दलित और तीन करोड दस लाख आदिवासी शामिल हैं। पिछले कुछ सालों में बेहतर रोजगार की ललक उन्हें  अपने-अपने गांवों से यहां खींच लाई थी, उन गांवों से जिन्हें  नब्बे के दशक की ‘भूमंडलीकरण’ की नई अर्थनीतियों ने पूरी तरह नेस्तनाबूद कर दिया था। सब जानते थे और जिसे बार-बार साबित भी किया गया था कि भारत सरीखी बडी आबादी वाली कृषि-प्रधान अर्थव्यवस्था  में खेती के अलावा कोई रास्ता नहीं है। लेकिन ‘खुले बाजारों’ वाली अर्थनीति में कृषि का दबाव घटाने के बहाने कृषि और गांवों को बर्बाद किया गया और इसमें किसी पार्टी के, किसी सरगना ने कोई कसर नहीं छोडी। वैसे यह प्रक्रिया आजादी के बाद से ही जारी थी जिसमें कृषि, निवेश करने की बजाए दोहन करने का साधन बनी रही। यानि कृषि-क्षेत्र से कमाए गए अतिरिक्त (सरप्लेस) को उद्योगों की चाकरी में लगाया जाता रहा। नतीजे में, आंकडे बताते हैं कि दूसरे औद्योगिक जिन्सों के मुकाबले कृषि-उत्पादों की कीमतें 20-22 गुना कम ही रहीं। यानि साबुन सरीखे फैक्ट्री -उत्पाद की कीमतें कृषि उत्पादों की कीमतों के मुकाबले 20 से 22 गुना तक बढीं। इस तुलना को किसानों और सरकारी कामगारों पर लागू करें तो और भी दुखद विडम्बना दिखाई देती है। जहां सरकारी विभागों में कार्यरत शहरी कामगारों का वेतन 120 से 150 गुना तक बढा, वहीं किसान की आय में महज 18 से 20 गुना वृद्धि हुई।


इसके बावजूद शहरों में फुटकर काम करने वाले मजदूर कोरोना के डर से वापस अपने-अपने गांवों की ओर क्यों कूच कर रहे हैं? जाहिर है, उन्हें अब भी गांव एक संभावना लगता है, लेकिन इसे हमारी राजनीति, सरकार, नीति-निर्माता और निवेशक नहीं समझना चाहते। अब जब ‘जीडीपी’ की बदहाली ने आर्थिक हालातों की धज्जियां बिखेर दी हैं, क्या  हमारे कर्ता-धर्ता खेती-किसानी को उसका अपेक्षित हिस्सा देना चाहेंगे? आखिर भारत समेत दुनियाभर के उद्योगों को ‘बेल-आउट’ पैकेज देने की अनुशंसाएं तो की ही जा रही हैं। ऐसा 'बेल-आउट' ‍किसानों को क्यों नहीं ‍दिया जाना चाहिए? कोरोना का संकट हमें चीख-चीखकर बता रहा है कि देश की अर्थव्यवस्था  का फोकस अब बदलना ही होगा। उसे कृषि और गांवों में निवेश करने, फसलों के उचित दाम देने और कृषि ‘आदानों’ की कीमतें नियंत्रित करने की ओर मोडना होगा। ऐसा नहीं होगा और ‘कोरोना-पूर्व’ की तरह भंडारों में करीब आठ करोड टन अनाज होने के बावजूद व्यापक रूप से भुखमरी और किसान आत्महत्याएं  होंंगी, तो कोई छोटा-मोटा वायरस भी हमें नहीं छोडेगा।


वैसे दुनियाभर में सत्ता के केन्द्र बदलने के संकेत उभर रहे हैं। अभी कुछ दिन पहले तक क्या कोई सोच सकता था कि सर्वशक्तिमान अमेरिका मामूली मॉस्क, वैन्टीलेटर या हाइड्रोक्लोरोक्वीन जैसी जरूरतों के लिए इस तरह घिघियाएगा? या एक जमाने में पूरी दुनिया पर राज करने वाले इंग्लेंड के युवराज और प्रधानमंत्री तक को कोरोना का वायरस ‘डस’ लेगा? यदि इस मजाक में, जिसमें कहा जा रहा है कि पश्चिम के आर्थिक सम्राज्य को झटकने के लिए चीन ने कोरोना वायरस छोडा है, छिपे संदेश को मान लें तो दुनिया के सत्ता-केन्द्रों  की धुरी बदलती दिखाई देती है। इतिहास बताता है कि वैश्विक स्तर पर होने वाले सत्ता-केन्द्रों  के बदलाव देशों के स्थानीय स्तरों तक असर डालते हैं। जाहिर है, हमें भी पूंजी और उद्योगों के इर्द-गिर्द ठहरे मौजूदा सत्ता केन्द्रों  को गांवों, किसानों की तरफ मोडना होगा।


पूंजी और सत्ता केन्द्रों  के बदलाव का एक मतलब यह भी हो सकता है कि घूम-फिरकर वापस उसी पटरी पर लौट आया जाए। कई अर्थशास्त्री  कह भी रहे हैं कि कोरोना से निपटने के बाद दुनिया वापस अपनी वही रफ्तार पकड लेगी। अगर ऐसा होता है तो एक बात दुबारा साबित होगी कि हम पूंजी की अपनी हवस में ऐसे नीम-पागल हो चुके हैं जो अपनी आसन्न मौत तक को नहीं देख पाता। कोरोना के मौजूदा संकट ने ‘लॉक डाउन’ की मार्फत यह भी सिखाया है कि आरोपित ही सही, इंसानी गतिविधियों पर यदि प्रतिबंध लगें तो हम अपने पर्यावरण और उसके जरिए खुद को बचा सकते हैं। आखिर लाखों करोड रुपए और मानव-संसाधन लगाने के बावजूद जहां-की-तहां बदहाल पडी गंगा-यमुना जैसी नदियां कोरोना के ‘लॉक डाउन’ में ही साफ-सुथरी दिखाई देने लगी हैं।
                                      
@ राकेश दीवानRakesh Dewan