यह किताबों पर संकट का समय है। मौखिक किस्सागोई और किताबों के विकल्प के तौर पर टीवी और इंटरनेट के सहारे तेजी से फ़ैल रही कथा सुनाने की दृश्य परंपरा ने अब खतरनाक शक्ल अख्तियार कर लिया है। यह बच्चों को ही नहीं, बड़ों को भी समाज से काटकर अकेला कर देने की घातक भूमिका निभा रही है। इससे वे न केवल अपने आसपास की दुनिया में दिलचस्पी खोते जा रहे हैं, बल्कि धीरे-धीरे अवसादग्रस्त भी हो रहे हैं। इन दृश्य माध्यमों के प्रति दीवानगी का बुरा असर बच्चों की आंखों पर पड़ रहा है। इन दिनों छोटे-छोटे बच्चों को मोटे-मोटे शीशे वाले चश्मे पहने देखना एक त्रासद अनुभव है। मनोवैज्ञानिकों के एक बड़े वर्ग का मानना है कि आने वाली पीढ़ियों को मानसिक बीमार होने से बचाने के लिए फिर किताबों की दुनिया में लौटने की जरुरत है। बच्चों की कल्पना-शक्ति की उर्वरता में बाल साहित्य की महत्ता को देखते हुए कुछ यूरोपीय देशों, चीन और जापान में योजनाबद्ध तरीके से बच्चों के लिए किताबें लिखवाईं और कम कीमत पर उपलब्ध कराई जा रही हैं। भारत में बाल-साहित्य पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया। जो कुछ अच्छी किताबें बच्चों के लिए लिखी भी जा रही है, कारगर वितरण-व्यवस्था और पुस्तकालयों के अभाव में उनकी पहुंच ज्यादा बच्चों तक नहीं है। इसके लिए चिल्ड्रेन बुक ट्रस्ट, नेशनल बुक ट्रस्ट और केंद्रीय तथा प्रादेशिक साहित्य अकादमियों को आगे आना होगा।
वे स्तरीय लेखकों की टीम बनाकर बच्चों के लिए स्तरीय साहित्य की न सिर्फ रचना कराएं, बल्कि उन्हें सस्ते दामों में गांवों और शहरों के स्कूलों, पुस्तकालयों और बुक स्टालों तक पहुंचा दे। इसमें बड़ी भूमिका अभिभावकों की होगी। उन्हें बच्चों के सामने मोबाइल और टेलीविज़न के इस्तेमाल से भरसक बचना भी होगा और उन्हें अच्छी किताबों और शिक्षाप्रद कॉमिक्स की ओर मोड़ने की जुगत भी करनी होगी। वे खुद उदाहरण उपस्थित करेंगे तो बच्चे भी उनका अनुकरण करेंगे।
आप सभी को विश्व पुस्तक दिवस की शुभकामनाएं !
By Dhruv Gupt
सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी