हम परदेसी पंछी बाबा

आज कुमार गंधर्व का जन्मदिन है सही, लेकिन कुमार साहब को जन्म की जगह मृत्यु का राग ज्यादा आह्लादित करता था।


नाथपंथियों के निर्गुण में, खासकर कबीर में, मृत्यु को लेकर जो निर्भयता, जो सहजता दिखती है, वैसी ही सधुक्कड़ी निर्मोहिता कुमार साहब के जीवन और गायन में भी दिखती थी। उनके शास्त्रीय गायन में भी वही कबिराहा तान प्रकट दिखता है।


कुमार गंधर्व ने मालवा के नाथ-योगियों और आमजनों के कंठ से गूंजती कबीर-वाणियों को सीखना-समझना शुरू किया। प्रकृति ने उन्हें मानो इसीलिए देवास भेजा था।


नाथपंथी बाबा शीलनाथ 1901 से लेकर 1920 तक बीस साल देवास में रहे थे। शीलनाथ निर्गुण भजनों में डूबे रहनेवालों में से थे। इतना कि 1915 में उन्होंने कबीर भजनों का एक संग्रह तक छपवाया था।


बाद में वो अंतिम प्रयाण के लिए हिमालय की ओर निकल गए। कहा जाता है कि शीलनाथ जब प्राण त्याग रहे थे तो उन्होंने अपने एक चेले से कहा कि सद्गुरु कबीर का वह भजन गाओ—


हम परदेसी पंछी बाबा अणी देस रा नाहीं,
हो जी, अणी देस रा लोग अचेता, पल-पल भर पछताहीं..


भजन का अंतिम पद गाते-गाते शीलनाथ परदेसी पंछी की तरह उड़ चले। देवास में शीलनाथ बाबा की धुनी पर कुमार साहब रात को आकर बैठते थे और घुमक्कड़ योगियों के साथ कबीर भजन गाते और सुनते थे।


अपना गाया प्रसिद्ध भजन ‘सुनता है गुरु ग्यानी’ भी उन्होंने सबसे पहले अपने घर भिक्षा मांगने आए ऐसे ही एक योगी के मुँह से सुना था। एक और प्रसिद्ध भजन ‘उड़ जाएग हंस अकेला’ तो उन्हें शीलनाथ की धुनी पर टंगे एक आईने पर उकेरा हुआ मिला था।


लेकिन शीलनाथ की तरह ही कुमार गंधर्व को भी ‘हम परदेसी पंछी बाबा’ वाला भजन बहुत भाता था। प्रभाष जोशी ने भी कुमार गंधर्व पर लिखे अपने संस्मरण का शीर्षक दिया था- ‘हम परदेसी पंछी बाबा’। उन्होंने लिखा था— 


“कुमार गंधर्व की इच्छा थी कि जब वे इस देस से अपने देस की ओर उड़ चलें तो उनके शिष्य यह भजन गा रहे हों और इसे सुनते-सुनते ही उनके प्राण पखेरू उड़  जाएँ-


मुख बिन गाना पग बिन चलना, बिना पंख उड़ जाई
बिना मोह की सुरत हमारी, अनहद में रम जाई
भाई संतो! अणी देस रा नाहीं, हम परदेसी पंछी बाबा...”


ऐसा हो सका कि नहीं, यह नहीं मालूम। लेकिन 1992 में जब कुमार साहब हंसादेस को उड़ चले, तो उनके दाह-संस्कार के समय एक स्थानीय लोक मंडली आत्मप्रेरणा से वहाँ आ पहुँची और केवल झाँझ-मंजीरे और करताल पर भाव-विभोर होकर गाने लगी-


छाया बैठू अगनि बियापै, धूप अधिक सितलाई,
छाया धूप से सतगुरु न्यारा, हम सतगुरु के माहीं,
हम परदेसी पंछी बाबा अणी देस रा नाहीं.


Avyakta