घर में नहीं दाने, चलो दीवाली मनाने*


तो बिग बॉस ने अपने खाली बैठे भक्तों और गोदी मीडिया को नया टास्क दे दिया। अब कोरोना दीवाली मनाओ और मनवाओ। इससे भक्तों की कुंडली पुनः जागृत हो गई, जो 22 मार्च को थाली बजाने के बाद सुप्तावस्था में चली गई थी।
अब 'अंधेरी रात में दिया तेरे हाथ में' की बारी है। बाबा को पता था कि सबके पास  दीया होगा नहीं इसलिए मोमबत्ती, टॉर्च, मोबाइल सब जलाने की छूट दे दी। निकम्मे बैठे भक्त 9 मिनट तक कुछ तो करें और जो न करे उसे गरियाएँ।
दरअसल हम जैसे पढ़े लिखे मूर्खों की मंडली इस तांत्रिक बाबा से कुछ ज़्यादा ही उम्मीद पाल लेती है। हम सोचने लगे थे कि हरी चटनी और समोसे से कृपा बरसाने वाले बाबा कम से कम इस बार ज़रूर ग़रीब के पेट की आग, गिरती अर्थव्यवस्था, बढ़ती महंगाई और डॉक्टरों को बेहतर उपकरण देने जैसी बातों पर कुछ बोलेंगे। लेकिन बाबा तो आत्मलीन हैं, फ़कीर हैं सो देश में धूनी तो रमेगी ही। इससे एक बड़ा इवेंट तो बनेगा ही। कुछ भक्त तो मशालें लेकर सड़कों पर उतर पड़ेंगे। इससे कोरोना तो क्या उसका बाप भी डरकर भागेगा।
सोचकर देखिए कि ऐसे समय दीवाली मनाने की बात सोचना भी किसी गुनाह से कम नहीं। क्या हम इतने उत्सवधर्मी हो गए हैं कि अब कोरोना भगाने के नाम पर राजनीतिक दिवालिएपन की दीवाली मनाएं? 


यह देश तो दीवाली तब ही मनाता है, जब प्रभु श्री राम अयोध्या वापस आते हैं और रामराज्य की स्थापना होती है। लेकिन अजीब लगता है, जब विश्वगुरु, हमारे प्रधानमंत्री - खेतों में खड़ी फ़सलों के बर्बाद होने, भूखे पेट जीने को मजबूर गरीबों , चौपट होते उद्योग धंधों , सुरसा के मुख की तरह बढ़ रही महंगाई और गिरती जीडीपी के बीच ठप्प पड़े देश को इस समस्या से निकालने के लिए बत्ती बुझाकर-  दीया,टॉर्च और मोमबत्तियां जलाकर कोरोना से लड़ने की बात करते हैं। देश भर की सारी बिजली बुझा देना भी 'पॉवर ग्रिड कोलैप्स' जैसा खतरा पैदा कर सकता है। क्या इस पर एक्सपर्ट्स से सलाह मशविरा किया गया है?
रात आठ बजे तो बाबा रोंगटे खड़े करने वाली घोषणाएं ही करते हैं। सोचा था कि आप इस बार 9 बजे दिन को प्रकट हुए हैं, तो शायद कुछ काम की बात करें। यह बताएं कि 21 दिन के लॉक डाउन के बाद क्या स्थितियां सामान्य हो जाएंगी? क्या आंशिक तालाबंदी लंबी चल सकती है? अगर चली तो सरकार के पास आर्थिक अंधेरे से देश को निकालने की क्या तैयारी है? आम आदमी के पेट की आग की तपिश सरकार तक पहुंची है क्या? सोचा था कि कल्कि अवतार के जादू के पिटारे में कुछ तो होगा। मगर निकला सिर्फ़ दीया। अलादीन का चिराग निकलता तो उसे घिसकर देशवासी अपना काम चला लेते लेकिन इस दीए में डालने के लिए ग़रीब जनता के पास तो तेल भी नहीं है। कभी सोचकर देखिएगा प्रधानमंत्री जी कि भूख की ज्वाला में जलते, कलपते, तरसते लोगों के साथ आपने कितना क्रूर मज़ाक किया है। 


कवि प्रदीप की एक कविता आपको समर्पित करना चाहूंगा-
अंधेरे में जो बैठे हैं, नज़र उन पर भी कुछ डालो
अरे ओ रोशनी वालों ...
बुरे हम हैं नहीं इतने, ज़रा देखो हमें भालो 
अरे ओ रोशनी वालों ... 
कफ़न से ओढ़ कर बैठे हैं, हम सपनों की लाशों को 
जो किस्मत ने दिखाए, देखते हैं उन तमाशों को 
हमें नफ़रत से मत देखो, ज़रा हम पर रहम खालो 
अरे ओ रोशनी वालों ... 
हमारे भी थे कुछ साथी, हमारे भी थे कुछ सपने 
सभी वो राह में छूटे, वो सब रूठे जो थे अपने 
जो रोते हैं कई दिन से, ज़रा उनको भी समझा लो 
अरे ओ रोशनी वालों ...


माफ़ कीजिएगा, आपके इन भद्दे विचारों से न तो मैं सहमत हो पाऊंगा और न ही गरीबों के पेट की धधकती ज्वाला से दीया जला पाऊंगा। 


शायद आप जैसी सोच वालों के लिए भवानी प्रसाद मिश्र ने सही कहा है -


बहुत नहीं सिर्फ़ चार कौए थे काले,
उन्होंने यह तय किया कि सारे उड़ने वाले
उनके ढंग से उड़े,, रुकें, खायें और गायें
वे जिसको त्यौहार कहें सब उसे मनाएं
कभी कभी जादू हो जाता दुनिया में
दुनिया भर के गुण दिखते हैं औगुनिया में
ये औगुनिए चार बड़े सरताज हो गये
इनके नौकर चील, गरुड़ और बाज हो गये.
हंस मोर चातक गौरैये किस गिनती में
हाथ बांध कर खड़े हो गये सब विनती में
हुक्म हुआ, चातक पंछी रट नहीं लगायें
पिऊ-पिऊ को छोड़े कौए-कौए गायें
बीस तरह के काम दे दिए गौरैयों को
खाना-पीना मौज उड़ाना छुट्भैयों को
कौओं की ऐसी बन आयी पांचों घी में
बड़े-बड़े मनसूबे आए उनके जी में
उड़ने तक तक के नियम बदल कर ऐसे ढाले
उड़ने वाले सिर्फ़ रह गए बैठे ठाले
आगे क्या कुछ हुआ सुनाना बहुत कठिन है
यह दिन कवि का नहीं, चार कौओं का दिन है
उत्सुकता जग जाए तो मेरे घर आ जाना
लंबा किस्सा थोड़े में किस तरह सुनाना ?..
आज बस इतना ही। इतने में ही जी भर आया है।


@ रवि वर्मा - रायपुर
मार्फ़त : Kanak Tiwari