दुनिया का सर्वाधिक शक्तिशाली शहर आज दुनिया का सर्वाधिक अभिशप्त और आतंकित शहर बन गया है।

न्यूयार्क...अमेरिकी समृद्धि का शिखर प्रतीक, विश्व राजनीति का प्रमुख रंगस्थल, जिसके खरबपतियों का जलवा विश्व बाजार के सिर चढ़ कर बोलता रहा है, जिसके चमकदार चौराहों और रौशन गलियों में रंगीन ज़िन्दगियों के उन्मुक्त अट्टहास गूंजते रहे हैं, वहां आज मौत का सन्नाटा पसरा है।


      दुनिया का सर्वाधिक शक्तिशाली शहर आज दुनिया का सर्वाधिक अभिशप्त और आतंकित शहर बन गया है।


    कभी पढ़ा था कि न्यूयार्क के उपनगर मैनहट्टन के किसी छोटे से भूखण्ड या किसी गगनचुम्बी अपार्टमेंट के छोटे से फ्लैट की कीमत दुनिया में सर्वाधिक है। आज पढ़ा कि करोड़ों के उन्हीं फ़्लैट्स में अंतिम सांसें लेते ऐसे संक्रमित भी हैं जिनकी सुध लेने वाला कोई नहीं।


    कोरोना ने फिर जता दिया है कि मनुष्य के लिये ताकत और समृद्धि एक छलना मात्र है और सत्य तो यही है कि...'यह संसार कागद की पुड़िया, बून्द पड़े धुल जाना है।'


    मौत से जूझते न्यूयार्क वासियों के मृत परिजनों की अंत्येष्टि के लिये जगहें कम पड़ जा रही हैं। उनका वैज्ञानिक उत्कर्ष किसी महामारी के सामने फिलहाल बौना साबित हो रहा है और उखड़ती साँसों के सामने उनकी आर्थिक चमक का कोई मतलब नहीं रह गया है।


    वही आर्थिक चमक...जिसकी तलहटी में तीसरी दुनिया के देशों की भूख और मौत का अंधेरा है, जिसकी पृष्ठभूमि में अमेरिकी पूंजीवाद की दुरभिसंधियों के अमानवीय इतिहास के न जाने कितने अध्याय शामिल हैं।


     1950 के दशक की शुरुआत में इसी न्यूयार्क के विशाल प्रासादों में अमेरिकी हथियार लॉबी के बड़े किरदार अपने प्रतिनिधि आइजनहावर को राष्ट्रपति बनाने की योजनाओं पर मशविरे करते थे। 


   द्वितीय विश्वयुद्ध से ध्वस्त मानवता जब उठ खड़े होने की लड़खड़ाती कोशिशें कर रही थी और अमेरिकी बौद्धिकों का एक  शान्तिकामी तबका विश्व शांति के संदर्भ में अमेरिका की भूमिका को पुनर्परिभाषित करने की कोशिशों में लगा था, हथियार लॉबी ने अपने आर्थिक प्रभाव की बदौलत राजनीति का सूत्र अपने हाथों में ले लिया और पूर्व सैन्य अधिकारी आइजनहावर को राष्ट्रपति निर्वाचित करवाने में सफल रहे।


     उसके बाद...सोवियत साम्यवाद के प्रसार को काउंटर करने की आड़ में अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान ने हथियारों के व्यापार को नई आक्रामकता देनी शुरू की। तीसरी दुनिया की भूखी और शोषित जनता के माथे पर न जाने कितने बर्बर तानाशाहों को बिठा कर, उन्हें अंतहीन लड़ाइयों में उलझा कर अमेरिकी कंपनियां अपने हथियार बेचती रहीं और अमेरिकी शहरों की समृद्धि में चार चांद लगते रहे।


    'आइजनहावर सिद्धांत', जिसे 1957 में अमल में लाने की शुरुआत हुई, प्रत्यक्षतः मध्यपूर्व के देशों में सोवियत साम्यवाद की दस्तक को रोकने की कवायद था, लेकिन अप्रत्यक्षतः इससे भी व्यापक उन योजनाओं का हिस्सा था जिनमें तेल के अथाह भंडार पर अपना आधिपत्य जमाना शामिल था। इस सिद्धांत में 'जरूरत पड़ने पर मित्रों का सशस्त्र सहयोग' का संकल्प शामिल था जिसने मध्यपूर्व के इलाके में अंतहीन युद्धों का सूत्रपात किया। 


  मित्र के नाम पर कठपुतली शासकों को बिठाए रखना, वहां की जनता के जीवन को अंतहीन त्रासदियों में झोंके रखना...बहुराष्ट्रीय कंपनियों के माध्यम से उन देशों की संपत्तियों को सोख-सोख कर अमेरिकी शहरों की जगमगाहट बढाते जाना...अमेरिकी सैन्य नीति और विदेश नीति के ये मूल मंत्र रहे।


      आज...नियति के क्रूर हाथों के सामने बेबस अमेरिकियों में ऐसे खरब पति भी शामिल हैं जो उन बहुराष्ट्रीय तेल कंपनियों के प्रमुख शेयर धारक हैं जिन्होंने महज़ अपने व्यापारिक हितों के लिये खाड़ी के देशों को बर्बाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। कितने तो उखड़ती साँसों के दौरान अब इतने होश में भी नहीं कि दुनिया में कितने देशों की कितनी कंपनियों में उनके शेयर हैं और वे एक दिन में इतना कमाते हैं जिसका हिंसाब रखने के लिये एकाउंटेंट्स की फौज है।


    चमकते न्यूयार्क में निरन्तर पसरता जाता अंधेरा...हर बीतती रात के साथ खौफनाक होता सन्नाटा...स्वास्थ्यकर्मियों की भागदौड़, निदान खोजते एकाग्रचित्त वैज्ञानिकों की तपस्या, भयभीत करती एम्बुलेंस के सायरन की आवाजें जहां मनुष्य की जिजीविषा का आख्यान रच रही हैं वहीं इस सत्य का साक्षात्कार भी करवा रही हैं कि ज़िन्दगियों की रौनक, सभ्यताओं की चमक और उनका स्थायित्व मानव-मानव की समानता में ही निहित है, कि एक दूसरे के हितों के साथ सामंजस्य में ही निहित है, कि इस पृथ्वी पर के हम तमाम निवासी अंततः नियति के एक ही डोर से बंधे हैं।


    बहुत सारे विचारक इस उम्मीद के साथ कोरोना संकट के खत्म होने की आकुल प्रतीक्षा कर रहे हैं कि इसके बाद दुनिया का चेहरा बदला बदला सा होगा, कि आने वाले समय में दुनिया अधिक मानवीय होगी, कि विश्व राजनीति के मूल्य बदलेंगे....और...सबसे महत्वपूर्ण...कि अर्थशास्त्र के बाजारवादी अध्यायों में ऐसे बदलाव होंगे जो मनुष्य को उपभोक्ता की नजरों से नहीं, मनुष्य की नजरों से देखेंगे। 
     सकारात्मक उम्मीदें मनुष्यता के लिये हर संकट में संबल बनती रही हैं। यही इस संकट के साथ भी है।


हेमंत कुमार झा