छोटानागपुर के स्थानीय "जनजाति विद्रोह"  के कारण अंग्रेज़ो को बनाना पड़ा छोटानागपुर कास्तकारी अधिनियम ।

झारखंड के छोटानागपुर ,संतालपरगना ,एवं कोल्हान क्षेत्र के जनजातिय क्षेत्र के लिए भूमि राजस्व से सम्बंधित या भूमि बंदोबस्त कानून को CNT,SPT Act या छोटानागपुर कास्तकारी अधिनियम  ,संतालपरगना कास्तकारी अधिनियम कहते हैं। झारखण्ड के जनजातिय क्षेत्र में भूमि राजस्व या लगान सम्बन्धी कानून बनाने के पीछे का जो इतिहास है उसे हर झारखंडी को जानना अति आवश्यक है । क्योंकि इस कास्तकारी अधिनियम के बनाये जाने के पीछे झारखण्ड के लाखों जनजातियों ने अंग्रेज़ो के एवं गैर जनजाति लोगो के खिलाफ विद्रोह कर अपने प्राणों का बलिदान दिया था।


आइए इस ऐतिहासिक कानून के पीछे के रक्त रंजित इतिहास को जानने का प्रयास करते हैं। छोटानागपुर कास्तकारी अधिनियम का पूर्ण प्रारूप 1908 में तैयार किया गया था और 11 अक्टूबर 1908 को लागू किया गया था। इस कानून में लगभग 19 अध्याय है और 271 धाराएं है । 1908 से लेकर 2016 के बीच 26 संशोधन इस कानून में किये गए है ।


ब्रिटिश सरकार को आखिर इस कानून को बनाने की जरूरत क्यों पड़ी ? आइए, पहले जनजातीय विद्रोह के इतिहास की ओर चलते हैं । दरअसल इस कानून को गैर-जनजाति लोग यानी दिकू लोगो द्वारा जनजातिय लोगो की जमीन की लूट खसोट खरीद बिक्री को रोकने के लिए बनाया गया था।झारखण्ड में लगभग 32 जनजातिय समुदाय हजारो वर्षो से निवास करती आ रही है । मुख्यतः जनजातियाँ ही यहाँ के सबसे प्राचीनम निवासी है । जब उन सभी जनजातियों का इन क्षेत्रों में प्रवेश हुआ था तो यह प्रदेश वन वनों एवं वन पशुओं से भरा पड़ा था। उन जनजातियों के पूर्वजों ने उन जंगलो को काटकर साफ किया एवं खेती योग्य जमीन तैयार की थी इसी कारण उन जमीन का मालिकाना हक रखते हैं ।अतः अंग्रेजो ने उन जनजातियों की जमीन कोई बाहरी लोग (दिकू) आकर उनसे छीन ना लेया जबरन कोई उनके जमीनों पर कब्जा ना कर ले इस लिए ब्रिटिश सरकार को इस कानून को बनाना पड़ा।


झारखंड प्रदेश में भूमि बंदोबस्त या राजस्व से सम्बन्धी तीन बड़े कानून बनाये गए थे -


१. छोटानागपुर कास्तकारी अधिनियम
२. संतालपरगना कास्तकारी अधिनियम
३. विंलकिंशन अधिनियम (कोल्हान क्षेत्र के लिए )


इस आलेख में केवल छोटानागपुर कास्तकारी अधिनियम यानी CNT Act के बारे में जानने का प्रयास करेंगे ।


झारखंड में बत्तीस जनजाति समुदाय निवास करते हैं ।उन सभी जनजातियों के अपनी अपनी संस्कृति ,परम्पराएं ,रीति-रिवाज , उनके सामाजिक नियम एवं प्रशासनिक व्यवस्था है । उनके ये सभी नियम एवं व्यवस्था जल जंगल और जमीन से जुड़ी हुई है । बाहरी लोग (दिकू) आकर उनके रीति-रिवाज ,परम्पराओ एवं उनके जीवकोपार्जन का स्रोत जो सभी प्रकृति पर ही आधारित है उनसे छीनने का प्रयास करने लगे तो वे जनजातियाँ इसे बर्दास्त नही कर पाये फलस्वरूप वे उग्र हो गए । उनके अंदर से असुरक्षा व्याप्त हो गई थी । वे बाहरी लोगों के हस्तक्षेप के कारण उनके खिलाफ विद्रोह करने पर विवश हो गए थे।


प्राचीनकाल से ये देखा गया गया की जब मुगलों का भारत मे शासन था तो मुग़ल शासकों ने झारखंड के जनजाति क्षेत्रो में सामाजिक ,सांस्कृतिक एवं प्रशासनिक तौर पर ज्यादा हस्तक्षेप नही किया था ।
मुग़ल भलीभांति यह जानते थे की जनजाति क्षेत्र के लोगों को उनकी परम्पराएं ,संस्कृति ,रीति-रिवाज एवं स्वतंत्रता से कितना अधिक प्रिय था । अगर वे लोग उनके जनजीवन में हस्तक्षेप करते तो वे लोग बिल्कुल बर्दास्त नही कर सकते थे और युद्ध की स्थिति पैदा हो जाती ।


झारखंड के जनजाति अपने अपने क्षेत्रों में मिलजुल कर  भाईचारा के साथ शांतिपूर्वक रहना चाहते थे।यही कारण था की मुगलकाल में मुगलों का जनजाति क्षेत्रो में दखलंदाजी नही के बराबर था ।मुगलकाल में झारखंड के जनजाति शांतिपूर्वक रहते थे ।लेकिन अंग्रेजो के झारखण्ड के क्षेत्रों में प्रवेश करने के पूर्व अंग्रेज़ो को झारखण्ड के जनजातियों के स्वतंत्र एवं स्वछंद जीवनशैली के बारे में ज्ञात नही थे।
झारखण्ड के जनजातियो का जनजीवन जल जंगल और जंगलपर आश्रित है उनको उन सारी बातों से बिल्कुल अंजान थे ।


अब प्रश्न ये उठता है तो फिर अंग्रेजो को झारखण्ड के जनजाति क्षेत्रो में प्रवेश करने की जरूरत क्यों पड़ी ?
दरअसल 1765 ईसवी में बक्सर युद्ध के बाद अंग्रेज़ो को बिहार बंगाल और उड़ीसा की दीवानी प्राप्त हो गई अर्थात उन राज्यो से राजस्व प्राप्त करने का अधिकार उनको प्राप्त हो गया था। अंग्रेज झारखण्ड के जनजाति क्षेत्रो में 1769 ईसवी में प्रवेश किया था। सर्वप्रथम अंग्रेज अधिकारी कैमल झारखंड में राजस्व प्राप्ति के लिए झारखंड के जनजाति क्षेत्रो में आये ।लेकिन जल्द ही झारखण्ड के रामगढ़ ,छोटानागपुर और कोल्हान क्षेत्र में अंग्रेज अधिकारी कैमल के2खिलाफ विद्रोह शुरू हो । उस समय छोटानागपुर में मुंडा सरदारों या मुंडा राजाओं का प्रशासनिक अधिकार था।लेकिन उन मुंडा सरदारों को अपने अपने क्षेत्रों से टैक्स कलेक्ट करके चतरा के कलेक्टर को देना पड़ता था । मुंडा सरदारों के पास केवल प्रशासनिक अधिकार थे और दिवानी यानी टेक्स लेने का अधिकार सिर्फ अंग्रेजो के पास था ।अगर मुंडा सरदार कभी टेक्स कलेक्ट कर समय पर अंग्रेज कलेक्टर को राजस्व नही दे पाते थे तो उन मुंडा सरदारों के राज्य के कुछ जमीन को सार्वजनिक रूप से नीलामी करके उनके जमीन को गैर जनजातियों के लोगो को बेच दी जाती थी । इस तरह जनजातिय क्षेत्रो के लोगो की जमीन सार्वजनिक नीलामी करने से बाहरी लोगों (दिकू)का झारखण्ड के क्षेत्रों में प्रवेश होना शुरू हो गया । वे गैर जनजाति (दिकू) लोग बिहार ,बंगाल ,उड़ीसा और यूपी से आकर झारखण्ड में जमीन खरीदकर बसने लगे ।


इस तरह जनजाति लोगो के जमीन की खरीद फरोख्त होने पर स्थानीय मुंडा सरदारों (राजाओं) एवं जनजाति लोगो के अंदर असंतोष पैदा होने लगा जिससे झारखंड के अलग अलग प्रदेशो में विद्रोह होना शूरु हो गया। यहाँ के जनजाति समुदाय के लोग किसी भी प्रकार से बाहरी लोगों के द्वारा अपने क्षेत्रों में हस्तक्षेप करने के लिए तैयार नही थे। उनको उनकी आजादी और शांतिपूर्ण जीवन अतिप्रिय था।


जब स्थानीय जनजातियों द्वारा उनका विद्रोह इतना बढ़ गया तो आखिरकार विवश होकर अंग्रेजो को भूमि संबंधी राजस्व कानून बनाने पर मजबूर हो गए। राजस्व कानून में उन्होंने कई सुधार किए एवं झारखण्ड के अलग अलग जिलों में  कलक्टरों की नियुक्ति की गई । झारखण्ड उस वक्त बंगाल प्रान्त के हिस्सा था इस कारण उसका मुख्यालय मुर्शिदाबाद में बनाया गया।जिले की निगरानी के लिए "अमील" नियुक्त किये गए ।


जॉन कार्नवालिस के समय मे झारखण्ड में स्थाई भूमि बंदोबस्त की शुरुवात हो गई थी क्योंकि उस समय वहाँ के जमींदारों के पास ही स्थाई जमीन थी इसी कारण राजस्व के वसूली की जिम्मेदारी उन्ही जमींदारों के ऊपर थी । अगर राजस्व नही दिया गया तो राजस्व की भरपाई उनके जमीन की नीलामी से पूरी की जाती थी । अंग्रेजो के इसी दमनकारी नियमो के कारण बाहरी लोगों (दिकू) का झारखण्ड में प्रवेश मुमकिन हो पाया वरना जनजाति समुदाय किसी भी गैर जनजातियों को अपने क्षेत्रो में प्रवेश नही करने देते।


पहले जनजातिय लोगों की जमीन की सार्वजनिक नीलामी द्वारा स्थाई जमीन बिक्री होती थी बाद में अंग्रेज़ो ने न्यायालयों की मदद से जनजातियों की जमीन की बिक्री करके बिहार बंगाल उड़ीसा और यूपी के लोगो को जमीन बेचना शुरू कर दिया गया था । जो बाहरी लोग झारखण्ड के जनजातीय क्षेत्रो में जमीन खरीद रहे थे उनको यहाँ के स्थानीय जनजातियों के प्रशासनिक व्यवस्था जैसे मांझी परगनैत ,मानकी मुंडा ,पड़हा व्यवस्था ,दोकलो शोहोर आदि एवं जनजातियों के सामाजिक जीवन शैली के बारे में कुछ मालूम नही था । यहाँ के जनजातियों का आर्थिक आधार कृषि ही था ।अंग्रेजो एवं बाहरी दिकुओ को यह मालूम ही नही था की यहाँ के जनजाति सामूहिक कृषि करते थे । झारखंड के जनजातीय क्षेत्रों की भूमि के प्रकार भी अलग अलग थी जैसे - भुइहरी भूमि , खूँटकट्टी भूमि ,कोड़कड़ भूमि ,मझीयस भूमि आदि ये सभी भूमि के प्रकार थे जो केवल झारखण्ड के जनजातिय क्षेत्रों में थी ।


इन सभी प्रकार के भूमियों पर यहाँ के स्थानीय जनजातियों का मालिकाना अधिकार था ।यहाँ के जनजातियों का उन भूमि पर कृषि करने का अपना अलग तरीका था क्योंकि उन जमीनों पर किसी एक व्यक्ति का अधिकार नही होता था बल्कि सभी लोगो का सामूहिक भूमि अधिकार हुआ करता था ।और उन भूमि पर किये गए खेती पर सभी का सामूहिक हक होता था तथा उन जमीन से प्राप्त अनाजो का सामूहिक बटवारा होता था । इस कारण इन क्षेत्रों में भूमि के अलग प्रकार होने की वजह से इन क्षेत्रों को अन्य राज्यो से अलग करती थी ।


बाहरी दिकुओ और अंग्रेजो को इस प्रकार के भूमि के बारे में नही मालूम था की यहाँ के स्थानीय जनजातियों में असंतोष व्याप्त होने लगा।लगातार दिकुओ का आदिवासी क्षेत्रों में प्रवेश होने से कई तरह से आदिवासियों का शोषण होने लगा जिसके फलस्वरूप जगह जगह विद्रोह शुरू होने लगे । जब अंग्रेजो को आदिवासियों के सामाजिक जीवन जीवन के बारे में ज्ञात होने लगा तो उन्हें अपनी भूल का अहसास हुआ । जनविद्रोह को रोकने के लिए अंततः उनको आदिवासियों के भूमि संबंधी कानून बनाने पड़े।


- राजू मुर्मू


सिटीजन जर्नलिज़म फोरम