बाबासाहेब अम्बेडकर और मैं- खुशबू शर्मा

जब आप किसी तथाकथित ऊंची जाति में पैदा होते हैं, तो अंबेडकर जैसी शख्सियत से आपकी मुलाक़ात नहीं करवाई जाती, मैं भी उनसे और उनके काम से बहुत लम्बे समय तक अनजान थी, हमारे घरों में मैंने भगतसिंह, गाँधी, नेहरु का ज़िक्र सुना है लेकिन कभी अंबेडकर का नहीं सुना, स्कूल जाने लगी तो सामान्य ज्ञान की किताब से बस इतना सा जाना कि डॉ. भीमराव अंबेडकर नाम के एक व्यक्ति ने भारत का संविधान बनाया था, किताब के एक कोने में सूट पहने, टाई लगाये, चेहरे पर एक बड़ा सा चश्मा और हाथ में एक मोटी सी नीले रंग की किताब के साथ अंबेडकर की एक तस्वीर छपी होती थी,  इससे इतर मुझे न तो संविधान के बारे में कुछ मालूम था न ही अंबेडकर के बारे में।


जैसी मेरी परवरिश हुई थी मैं भी अपनी जाति के दूसरों लोगों से अलग कैसे हो सकती थी? मुझमें भी वो जातीय अहंकार और सामाजिक न्याय की विकृत समझ कूट-कूट कर भरी थी, हमारे घरों में आरक्षण को हर चीज़ के लिए दोषी ठहराना बहुत आम है, मैं उस लीक से कहाँ अलग थी, आरक्षण के रूप में अपनी विफलताओं का ठीकरा फोड़ने से बेहतर एस्केप क्या हो सकता था, हायर स्टडीज में जाने के बाद और राजनीति में थोड़ी बहुत रुचि के चलते चीजों को पढने लगी, अम्बेडकर का नाम बार बार सामने आता था लेकिन मैंने कभी उनके बारे में कुछ जानने या खोजने की ज़हमत नहीं उठाई, उनका नाम आस-पास के लोगों से भी सुनने लगी, कुछ कुछ बातें समझ आने लगी| लेकिन सच कहूं तो अपनी जाति के बारे में उनके विचार सुनकर बहुत खीज आती थी, सोचती थी कि हमारे दादा परदादा ने जो किया उसका बदला हमसे क्यों लिया जा रहा है? हमने कहाँ कुछ किया है, हम थोड़े ही जाति में विश्वास रखते हैं, हम तो बहुत प्रोग्रेसिव और लिबरल हैं| बस इतना ही तो करते हैं कि गाँव घर में जब  टॉयलेट साफ़ करने के लिए आंटी आती हैं तो उन्हें घर के बाहर ही बिठा देते हैं, ऊपर से पानी पिला देते हैं, अपने बर्तन वो खुद ही साफ़ करके जाती हैं। सब कहते थे कि इतना सब तो चलता ही है, आखिरकार होली दिवाली उन्हें पेटी में पड़े पुराने कपड़े और मिठाइयाँ भी तो देते हैं।


यह सिर्फ मेरा हाल नहीं था, मैं दावे के साथ कह सकती हूँ की स्वर्ण परिवारों के लगभग शत प्रतिशत बच्चों का यही हाल है। ऐसी कितनी ही अनगिनत बातें हैं जिन्हें आज सोचती हूँ तो शर्म आती है, अपने आप से घिन्न आती है| जब सोचती हूँ की इस शोषण में मैंने भी कहीं न कहीं भागीदारी निभाई है तो साँस आना बंद हो जाती है।


 यह सिर्फ गाँव देहात का मसला नहीं है, जयपुर जैसे शहर में, राजस्थान विश्वविद्यालय जैसे प्रतिष्ठित संस्थान के राजनीति विज्ञान विभाग में मास्टर्स डिग्री में एडमिशन लेने गयी, डिपार्टमेंट के एक एसोसिएट प्रोफेसर ने मेरी मार्कशीट देखकर बोला-“अच्छा बेटा, शर्मा हो? बैठो. मैं भी जनरल में ही आता हूँ पर आप तो हमसे भी ऊपर आते हो, इसलिए आपके लिए तो एडमिशन लेना और भी ज्यादा मुश्किल होगा, मेहनत करना बेटा वरना यह रिजर्वेशन वाले कुछ नहीं छोड़ेंगे, तुम क्लास में आगे ही बैठना, हमारे सारे बच्चे आगे ही बैठते हैं|” यह शब्द मेरे कानों में आज भी बिलकुल स्पष्ट गूंजते केवल गूंजते ही नहीं, चुभते भी हैं किसी सुई की तरह। इसके बाद मैंने वहां एडमिशन तो लिया लेकिन कुछ समय बाद वो कोर्स छोड़ दिया।


 आज जब भी मैं बाबासाहेब अंबेडकर को पढ़ती हूँ, वो हर बारे मेरे इसी अमानवीय गुरूर पर चोट करते हैं जो मुझमें और मेरे जैसे जाने कितने लोगों में ब्राह्मणवादी परवरिश द्वारा भरा जाता हैं, उनको पढ़कर मैं अपने आप को एक बेहतर इंसान पाती हूँ उन्होंने मुझे मेरी जातीय पहचान के भीतर छिपी दुनिया की क्रूरतम हिंसा का एहसास करवाया है जो इस मुल्क के बहुसंख्यक, कामगार, मेहनती लोगों के आंसुओं और वेदनाओं के लिए ज़िम्मेदार है। अब मैं और ऐसी पहचान के साथ नहीं जीना चाहती थी। बाबासाहब ने समय के साथ मुझे महिला होने के नाते मेरे पैरों में जाति द्वारा डाली गयी बेड़ियों का एहसास करवाया। मैं भी कहाँ आज़ाद थी। जब तक जाति है, कोई महिला आज़ाद नहीं हो सकती।


 हम सब गुलाम हैं, मनुस्मृति के उन्ही पन्नों के जो शूद्रों और महिलाओं के खिलाफ बराबर नफरत और ज़हर उगलते है। अंबेडकर एक क्रांति हैं, एक प्रतीक हैं, हर उस लड़ाई के जो दुनिया में हो रहे किसी भी अन्याय के खिलाफ लड़ी गयी हो| बाबासाहब ब्राह्मणवाद, मनुवाद, जातिवाद, पितृसत्ता के खिलाफ बुलंद हुई वो आवाज़ हैं जो बुलंद न होने से इनकार करती है| एक आवाज़ जो शोषक को आइना दिखाने से नहीं हिचकती| एक ऐसी आवाज़ जो पीड़ितों, शोषितों, वंचितों, पिछड़ों को प्रतिरोध, एहतिजाज करने के लिए प्रेरित करती है| अपने हकों के लिए लड़ने और जीतने का नाम ही आंबेडकर है| उनके द्वारा उठाई गयी इस आवाज़ में हम भी अपना स्वर मिला पाएं यही ज़िन्दगी का उद्देश्य है| जब "जय भीम" कहती हूँ तो लगता है कि मैं आज़ाद हूँ, ज़िंदा हूँ और मेरी आज़ादी किसी जाति, किसी पुरुष की मौहताज नहीं है| जाति और पितृसत्ता के खात्मे के लिए चल रही इस जंग को मेरी ज़िन्दगी समर्पित रहेगी।


धर्म, जाति, पितृसत्ता, भाषा, नस्ल-ऐसा कौनसा सवाल है जिसका उत्त्तर बाबासाहब के पास नहीं है,आज जब कहीं उलझती हूँ, जब सवालों के जवाब नहीं मिलते तो इसी तस्वीर की तरह उम्मीद भरी नज़रों से बाबासाहब की ओर देखती हूँ। बाबासाहेब मुझे कभी भी निराश नहीं करते।


खुशबू शर्मा( जेएनयू)


जयभीम,लाल 🔴 सलाम