बाबा साहेब के सपनो से एकदमअलग  है न्यू इंडिया 

डॉ बाबा साहेब अंबेडकर की 129 वीं जयंती पर विशेष 


14 अप्रैल 2020  को बाबा साहेब अंबेडकर की 129 वी जयंती है।लॉक डाउन के चलते बाबा साहेब को लेकर कोई सार्वजनिक  कार्यक्रम नही कर सकेंगे परंतु बाबा साहेब को मानने वाले अपने घरों मे तथा मोहल्लों में जहां भी बाबा साहेब की मुर्तियां स्थापित की गई है ,वहां शारीरिक दूरियों का पालन करते हुए अनुयायी माल्यार्पण जरूर करेंगे। बाबा साहेब देश के एकमात्र ऐसे जन नेता है जिनकी  सर्वाधिक मुर्तियां देश के लगभग सभी गांव और शहरों में उनके अनुयायियों द्वारा अपने पैसे से लगायी गयी है। लेकिन यह बात बहुत चुभने वाली है कि स्थानीय निकायों या सरकारों के द्वारा लगायी मूर्तियां मुख्य स्थानों पर लगाई गई हैं ,परन्तु अधिकतर मूर्तियां  दलितों के मोहल्ले मे लगी है। एक दृष्टि से यह अच्छा है क्योंकि कम से कम मुर्ति की साफ सफाई रख रखाव एवं सुरक्षा इससे स्वतः सुनिश्चित हो जाती है। इसका दूसरा पक्ष यह है कि बाबा साहेब की मूर्ति को गांव के बीचों बीच स्थान नही मिला ठीक उसी तरह जिस तरह से दलितों को गांव के बीच रहने का स्थान नहीं मिला ,उन्हें गांव के  बाहर या किसी कोने मे ही स्थान दिया गया।यही स्थिति देश भर के ग्रामीण अंचल में कुओं और हैंडपंपों की है। अधिकतर गांवों में दलितों पर गांव के मुख्य कुओं से या अपने मोहल्ले के कुऐं और हैंडपंप के अलावा कहीं से भी पानी लेने पर सामाजिक पाबंदी है, हालांकि यह  गैर कानूनी है।


     बाबा साहेब के जीवन का लक्ष्य जाति व्यवस्था का सम्पूर्ण रूप से खात्मा करना-  सड़ी गली जाति व्यवस्था का उन्मूलन था। यह विचारनीय प्रश्न है कि जब से जाति व्यवस्था हिंदू समाज में बनी तब से इस के खिलाफ यानी सामाजिक न्याय के पक्ष मे तमाम समाज सुधारकों द्वारा अथक प्रयास किया गया लेकिन अभी तक जाति व्यवस्था का खात्मा नहीं हुआ है न ही उसकी विद्रूपता ओं का क्रूरता का । जीति व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष करने वाले  योद्धाओं मे 
विश्वेश्वर, श्री नारायण गुरू ,साहूजी महाराज
पेरियार, नानक,कबीर, रैदास, ज्योतिबा फूले, सावित्रीबाई फूले,, बाबा साहब अंबेडकर, डॉ.राममनोहर लोहिया, मामा बालेश्वरदयाल, बी.पी.मंडल,कर्पूरी ठाकुर, कांशीराम आदि नाम उल्लेखनीय हैं।इसमें समाजवादी आंदोलन के सेकड़ों बड़े नेताओं के  नाम शामिल किए जा सकते हैं।
    आजादी के बाद विकास के जिस रास्ते पर देश आगे बढ़ा उसमे यह सोचा गया था कि शहरीकरण ,औद्योगीकरण , शिक्षा के सर्वव्यापकता तथा आरक्षण के माध्यम से सड़ी -गली जाति व्यवस्था की जकड़ ढीली  पड़ेगी लेकिन वास्तविकता यह है कि देश मे कुल 4 वर्णों में 3000 जातियों 25000उपजातियान हैं।
केवल अनुसूचित जातियों में 1208 उपजातियां शामिल हैं। मंडल कमीशन ने 3743 जातियों को चिन्हित किया था ,अब केंद्र सरकार की सूची में 5013 उपजातियां शामिल हैं।  
इन सभी उपजातियों के संगठन बने हुए है और  लगातार मजबूत होते जा रहे हैं। सभी ने अपने अपने  देवताओं को स्थापित करने की प्रतियोगिता में दिखलाई पड़ रहे  है। हर स्तर पर जातिवाद लगातार बढ़ता जा रहा है यहां तक कि संसदीय लोकतंत्र के अंतर्गत होने वाले चुनाव में जातियों के आधार पर टिकट का बटवारा खुल्लमखुल्ला किया जाता है। आम तौर पर वोट भी जातियों के ईर्दगिर्द जुटाने की कोशिश होती है। ऐसी स्थिति में बाबा साहेब का सपना आजादी के 70 साल बाद भी धरती पर नहीं उतारा जा सका है। यही जाति व्यवस्था के उन्मूलन का  सपना डॉ राममनोहर लोहिया जी का भी था जिसे उन्होंने जाति तोड़ो आंदोलन के तौर पर देश के सामने रखा था ।यह त्रासदी पूर्ण तथ्य है कि देश में ऐसे संगठन उंगलियों पर गिने जा सकते है जो वास्तव में जमीनी स्तर पर  जाति उन्मूलन के लक्ष्य के साथ रोजमर्रा के आवश्यक कार्य कर रहे है । इस बारे में सामाजिक न्याय के लिए प्रतिबद्ध सभी संगठनों को गम्भीर आत्मचिंतन करना चाहिए और जाति उन्मूलन के कार्यक्रम बनाने  चाहिए।
             भारत मूर्तिपूजकों और धर्म में आस्था रखने वालों का देश है । यहां हजारों साल से किसी व्यक्ति को देवतुल्य बताकर उसे  फोटो फ्रेम दीवार  पर टांगने की परंपरा है   लोगों की रूचि मूर्ति पूजा में होती है परन्तु अपने आराध्य देवता के विचारों को अपने जीवन में उतारने की आवश्यकता उन्हेँ  दिखलाई नहीं पड़ती । इसके अपवाद देवी देवता तो है ही नहीं, मनुष्य योनि मे जन्म लेने वालों में  भी नही हैं। लोग व्यक्ति पुजा करना चाहते है,व्यक्ति के विचारों को आत्मसात करना उनपर  आचरण करना नही चाहते।
         एक और कमी जो पूरे समाज में दिखलाई पड़ती है वह यह.है कि भक्त - अनुयायी अपने देवता को श्रेष्ठ बताने की होड़ मे लग जाते हैं। बड़ी मुर्तिया बनवाने की प्रतियोगिता शुरु हो जाती है। इसी प्रतियोगिता का परिणाम है कि सरदार पटेल की  तीन हजार करोड़ रूपया खर्च करके मूर्ति स्थापित की गई। मूर्ति स्थापित करने वाले ना तो, सरदार पटेल के किसानों संबंधी विचारों को मानते है ,ना ही राष्ट्रीय एकात्मता के विचारों को स्वीकार करते है। केवल 192 गांव और एक शहर को डुबो कर सरदार पटेल को ऊंची मूर्ति बनाकर सर्वोच्च नेता साबित करना चाहते है जिन्होंने किसानों और वंचित वर्गों को बचाने मे अपना पूरा जीवन खपा दिया था उनके आज़ादी के आंदोलन के विचार से मूर्ति लगाने वालों का कोई संबंध नहीं है।
          ब्राह्मणवाद - मनुवाद में   मूल विकार ,समुदाय विशेष को श्रेष्ठ मानना है ,खुद को श्रेष्ठ मानने और साबित करने के लिए दुनिया मे तमाम युध्द लड़े गये ,धार्मिक युध्दों में सबसे ज्यादा लोग मारे गए।इसी खुद को श्रेष्ठ साबित करने वाले विचार ने  फासीवाद को जन्म दिया जिसे द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान पूरी दुनिया ने भुगता ।हिटलर ने पचास लाख यहुदियों को गैस चेंबर मे जहरीली गैस से मारकर अपनी नस्ल को श्रेष्ठ साबित करने का आपराधिक कार्य किया,जिसके लिए हर जर्मन नागरिक खुद को शर्मिन्दा महसूस करता है।
 समाज के सर्वांगीण  विकास के लिए श्रेष्ठता के विचार की नही,समता के विचार की जरुरत है ,जिसे बाबासाहेब अंबेडकर ने भारत के संविधान के  मूल सिद्धांत के तौर पर स्थापित किया था ।
         आज पूरा देश बाबासाहेब को संविधान के निर्माता के तौर पर स्वीकार करता है लेकिन उस संविधान पर अमल हो यह लोगों के लिए अहम - महत्वपूर्ण मसला नहीं  है ।
आजादी के बाद भारत  में जो सरकारें   बनी उन्होंने संपूर्ण संविधान पर अमल करना तो 
 दूर संविधान के  प्रस्तावना तक का पालन नहीं किया। फिलहाल जो लोग दिल्ली की सत्ता पर बैठे हैं वे घोषित तौर पर संविधान से धर्म निरपेक्षता और समाजवाद के शब्द को हटाने की मांग कर रहे है। यह कुछ नया नहीं है। स्वयं सेवक  संघ भारत का संविधान बदलना चाहता है। भाजपा के नेता ना केवल समय -समय पर संविधान बदलने की आवश्यकता, सामाजिक आधार पर आरक्षण खत्म  करने की जरूरत  को लेकर न केवल बोलते रहे है बल्कि अटल जी की सरकार ने बाकायदा संविधान की समीक्षा  की रिपोर्ट तैयार करवाई थी, जो फिलहाल ठंडे बस्ते में पड़ी है परंतु राज्य सभा मे बहुमत हो जाने के बाद किसी भी दिन संविधान में आमुलचुल परिवर्तन किए जाने की संभावना बनी हुई है । कश्मीर में धारा 370 को हटाया जाना तथा नागरिक संशोधन कानून पारित किया जाना संविधान में परिवर्तन की दिशा में लिए गए दो महत्वपूर्ण फैसले हैं। स्वतंत्र अभिव्यक्ति का अधिकार पर दिन रात हमले हो रहे हैं।आनंद तेलतुंबड़े और गोपाल नवलखा को 14 अप्रैल तारीख को सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर आत्म समर्पण करना है।
सिद्धार्थवर्ध राजन को अयोध्या कोर्ट में फर्जी एफ आई आर के बाद 14 को ही हाजिर होने को कहा गया है। अर्बन नक्सल के नाम पर सुधा भारद्वाज सहित सेकड़ों बुद्धिजीवी और सामाजिक कार्यकर्ता जेल में डाल दिये गए हैं। इसके बाद भी क्या हम संविधान बदले जाने तक हाथ पर हाथ धरे बैठे रहेंगे? 
बात कड़वी लगेगी लेकिन याद रखिये यदि चीन के वुहान में जब कोरोना  वायरस का संक्रमण फैला था तब, पूरी दुनिया यदि चीन के साथ खड़ी हो जाती तो आज इस लेख को लिखे जाने तक जो 1 लाख नागरिकों की मौत हुई वह टाली जा सकती थी।
परंतु तब दुनिया समझ रही थी कि हम तो सुरक्षित हैं हमे चिंता करने की जरूरत नहीं है।
यही हाल संविधान को लेकर है।
एक के बाद एक सब खत्म हो रहा है ,हम चुप चाप बैठे हैं।
इस स्थिति को बदलने को लेकर बाबा साहेब को मानने वालों को विचार करना चाहिए।
         विलक्षण प्रतिभावान बाबा साहेब को विद्वान अद्धेयता के तौर पर सभी स्वीकार करते है ।परंतु उनकी  आंदोलनकारी और अर्थशास्त्री के तौर पर उनकी पहचान स्थापित नही की गई  है। जबकि वास्तविकता यह है कि बाबा साहेब आजीवन संघर्ष करते रहे। उन्होंने पानी पर दलितों के अधिकार के लिए 1927 मे सत्याग्रह किया ।कालाराम मंदिर प्रवेश के लिए आंदोलन चलाया।श्रमिक आंदोलन की अगुवाई की । देश के श्रमिकों के कल्याण के  लिए श्रम कानून बनवाए ,जब वे 1947 से 1951 तक देश के पहले कानून और न्याय मंत्री थे।
उन्होंने कोलंबिया विश्वविद्यालय और लंदन स्कूल ऑफ इकॉनोमिक्स से अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट की उपाधियां प्राप्त की थी ,वे बार एट लॉ भी थे ।
कोरोना संक्रमण के दौरान देश भर मे अचानक लागू किए गए लॉक डाउन के बाद आठ घंटे काम करने के कानून को बारह घंटे श्रमिक से काम लेने का कानून बनाया जा रहा है। गत 6 वर्ष मोदी सरकार ने बाबासाहेब के बनाए गए श्रम  कानूनों को बदलकर कार्पोरेट को अधिकतम मुनाफा देने के लिए चार कोड बना दिए है जिसका देश भर के मजदूर संगठन खुलकर - भारत बंद कर  खुला विरोध कर रहे है। अंबेडकरवादियों को बाबा साहेब के द्वारा तैयार किए गए श्रम कानूनों को बहाल करने के संघर्ष में न केवल बढ़चढ़ कर हिस्सा लेना चाहिए बल्कि आंदोलन का नेतृत्व करना चाहिए।
बाबा साहेब जिन सिद्धांतों को मूलभूत सिद्धांतों में तमाम बहस के कारण संविधान में शामिल नहीं कर सके थे उन्हें उन्होंने नीति निर्देशक सिध्दांतों में स्थान दिया था। जब बहस के दौरान संसाधनों की कमी का हवाला दिया गया था अब 28 अरब का बजट है,उन नीति निर्देशक सिद्धांतों को लागू किया जा सकता है।
           देश भर में पहली बार जिस संविधान को सरकारों ने अब तक  ताले मे बंद करके रखा,उसकी एक  प्रति तक सरकार की ओर से नागरिक को उपलब्ध नहीं कराई ,  उस संविधान का प्रस्तावना कम से कम सी ए ए- एन आर सी - एन पी आर। का विरोध करने वाली देश के 500 शाहीनबाग मे बैठी महिलाओं ,जे एन यू  जामिया,ए एम यू    से लेकर पूरे देश के  युवाओं के हाथ में दिखलाई पड़ा। जिन लोगों के हाथ में संविधान का प्रस्तावना था ,उनके हाथ में बाबा साहेब का चित्र भी था। सार संक्षेप यह है कि बाबा साहेब और उनके विचारों की जरुरत स्वी कार्यता एवं अनिवार्यता को आज देश का प्रगतिशील, तर्कवादी,संविधान मे विश्वास रखने वाले आज  बिना किसी झिझक  और पूर्वाग्रह के स्वीकार  कर रहे  है ।देश के अंबेडकर वादियों के लिए मौका है कि वे लगातार तेज होते जा रहे इस  वैचारिक संघर्ष की अगुवाई करें।


डॉ सुनीलम