आये ना बालम का करूं सजनी !

हिंदुस्तानी संगीत के पुरोधा मरहूम उस्ताद बड़े गुलाम अली खां भारतीय शास्त्रीय संगीत के शिखर पुरूषों में एक रहे हैं। धीर-गंभीर आवाज़ के स्वामी और अदायगी के जादूगर खां साहब को खयाल और ठुमरी गायन - दोनों में महारत हासिल थी। सारंगी वादन से अपनी संगीत-यात्रा शुरू करने वाले बड़े गुलाम अली खां ने देश की विभिन्न संगीत परंपराओं के मिश्रण से गायकी का एक बिल्कुल नया अंदाज़ विकसित किया जिसमें शास्त्रीय संगीत के इतिहास में पहली बार मधुरता और लचीलेपन के साथ संक्षिप्तता का अनोखा गुण था। भारत विभाजन के बाद खां साहब परिस्थतिवश पाकिस्तान गए, लेकिन वहां की कट्टरता से निराश होकर सदा के लिए भारत लौट आए। देश के बंटवारे को उन्होंने कभी स्वीकार नहीं किया। उनका मानना था कि ' अगर हर घर के एक बच्चे को हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की शिक्षा दी गई होती तो इस मुल्क़ का बंटवारा कभी नहीं होता।' खां साहब की गाई कुछ ठुमरियां - याद पिया की आये, आये न बालम का करूं सजनी, तिरछी नजरिया के बान, पिया बिना नाहीं चैन, नैना मोरे तरस गये, कटे ना बिरहा की रात आदि आज भी ठुमरी-प्रेमियों की पहली पसंद बनी हुई हैं। खां साहब ने बहुत दबाव के बावजूद फिल्मों से हमेशा एक दूरी बनाकर रखी, लेकिन अंततः वे फिल्म 'मुगल-ए-आज़म' के फिल्मकार के.आसिफ़ और संगीतकार नौशाद साहब की ज़िद के आगे हार गए। उन्होंने 'मुग़ल-ए-आज़म ' के लिए राग सोहनी और रागेश्वरी पर आधारित दो अमर गीत - 'प्रेम जोगन बन के' तथा 'शुभ दिन आयो' गाकर फिल्म को उंचाई और शास्त्रीयता दी। खां साहब की संगीत विरासत आज भी उनके नामचीन शिष्यों के रूप में जीवित है।


मरहूम उस्ताद जी की जयंती (2 अप्रिल) पर खिराज-ए-अक़ीदत !


by - Dhruv Gupt