1857 में दिल्ली 


मोटर से ठीक है जरूरी सामान की कमी की वजह से शहर भर में लोग बड़ी मुसीबत में हैंI और अगर कुछ मिलता भी है, तो उसकी कीमत इतनी ज्यादा होती  है कि आदमी उसको खरीद नहीं पाता है I दुकानें बंद रहती हैं, और अगर खुलती भी हैं तो सौ अनार खरीदने के लिए हज़ार लोग कतार लगा देते हैं I हालांकि सारा सामान बहुत घटिया दर्जे का होता है लेकिन भूख की ताकत बहुत है और इंसान की कमजोरी है, इसलिए जो मिलता है लोग खरीद लेते हैं और उसी पर शुक्र बजा लाते हैं I जैसे कहा गया है कि अगर गेहूं न मिले तो जौ से काम चलाओ I
“ गंदा और कड़वा घी रुपये का दो सेर बिकता है, आटा मिलना नामुमकिन है और सफ़ेद गेहूँ तो बिलकुल ही दुर्लभ है I अगर कहीं गेहूँ मिल भी जाय तो मुश्किल आसान नहीं होती I क्योंकि जब आप इसे पीसने देंगे और हज़ारों बहानों के बाद चक्की वाला इसे पीसने राजी हो भी गया , तो जब आप उसे लेने जायेंगे , तो वह कह देगा कि कुछ तिलंगे आये थे और आटा चीन कर ले गए I
“कभी कभी शहर के अन्दर के बागों से कुछ आम और दूसरे फल-तरकारी कुछ हिस्सों में पहुँच भी जाते हैं, लेकिन गरीब और मध्यमवर्गीय लोग बस होंठ चाटकर रह जाते हैं और इन ताजा चीजों को अमीर लोगों के घर पहुँचते देखते रहते हैंI शहर के बांके और खासकर औरतें जिन्हें पान और तम्बाकू की आदत है,बहुत परेशान हैं, क्योंकि पान अब सिर्फ एक जगह मिलता था-जामामस्जिद के बाहर वाले बाज़ार में-और वहाँ भी दो पैसे का एक, जो हम लोगों के लिए बेहद महँगा है I देखो अल्लाह ने हमको क्या सबक सिखाया है: हम लोग इतने तुनक मिजाज थे कि उम्दा गेहूँ को भी खारिज कर देते थे और शिकायत करते थे कि आटे से बदबू आ रही है और यह तो सिर्फ फकीरों को देने के काबिल है I और अब हम बाज़ार में बचे हुए खराब माल के लिए भी लड़ते हैं I’


◆विलियम डैलरिंपल की पुस्तक ‘आख़री मुग़ल -एक साम्राज्य का पतन , दिल्ली 1857 से साभार I 
◆ यह वाकया उस वक्त देहली उर्दू अखबार में 14 जून 1857 को छपा था I
 
# Arun Danayak