संवेदन-शून्य व्यक्ति और
अंधराष्ट्रवादी
ही ऐसी लफ्फाजी की मिसाल क़ायम करते हैं जो अपने पीछे नरसंहार की मंशा को छिपाए होती है .वे नरमेध के आदी हो चुके हैं ।
इतना कपट कि क़रीब चालीस करोड़ लोगों को भूख और बीमारी के बीच अरक्षित छोड़ दिया जाए और उनका ज़िक्र सिरे से ग़ायब कर दिया जाए उपेक्षा,घृणा और द्वेष की ऐसी साउन्ड-प्रूफ़ दीवार कि चालीस करोड़ लोगों का अस्तित्व ,उनका श्रम,उनका दुख उनकी सिसकी की हल्की सी आवाज़ खाते-पीते घमंडी को सुनाई न पड़े!
.वे लोग जिनके श्रम पर चमकदार शहर और बाज़ार खड़े होते हैं उपभोग के स्वादिष्ट कलात्मक वैभव के उपादान तैयार होते हैं उनका कहीं ज़िक्र नहीं पूरा मीडिया, सरकार तरह-तरह के
सामाजिक मुखिया सारा अर्थतन्त्र और जनतंत्र पूरा सफ़ेदपोश तबका सब उसके मामले में अन्धे -बहरे गूंगे ,नैतिक शक्ति खो चुके! कितनी बेशर्मी !!
कम से कम चालीस करोड़ लोग दिहाड़ी पर , पीस रेट पर काम करने वाले लोग, अस्थाई रूप से ठेके पर काम करने वाले लोग , प्रवासी मजदूर, बड़े -ब्रांड के लिये अंधेरी कोठरियों में काम करने वाले फुटपाथ पर सोने वाले ,तरह-तरह के बाल-मजदूर, ग़रीब एकल मांएं इन श्रमिकों को गिनकर नहीं समझा जा सकता. इस देश में खदान मज़दूर तक में ऐसे मज़दूरों की संख्या बहुत बड़ी है जो रजिस्टर्ड नहीं हैं फिर बेलदारों के बारे में क्या कहें.मोची, बढ़ई, पेन्टर, दर्जी , मंडियों में ढुलाई करने वाले सबमें बहुत ज़्यादा फुटकर मज़दूरी करने वाले लोग हैं.बीड़ी मज़दूर भी आधे से अधिक अब भी रजिस्टर्ड मज़दूर नहीं हैं अब तो शिक्षक तक दिहाड़ीदार हैं.हमारे यहां मज़दूरों का रजिस्टर बन नहीं पाता नागरिकों का रजिस्टर बनाने का शौक चर्राया हुआ है।
हमारे यहां भूख से मौत " सामान्य " स्थिति में होती रहती हैं . कोरोना महामारी के समय में इतनी बड़ी आबादी को लगभग भूखा मरने के लिये छोड़ दिया गया है. साहब लोगों को बीमारी से बचाना है और इसी की आड़ में ग़रीब आबादी को मरने के लिये छोड़ दो . बी पी एल योजना में बहुत बड़ी आबादी बाहर रह जाती है. अनाज और खाने का इन्तज़ाम करने के बारे में कुछ नहीं सोचा गया .दिल्ली में संसद और आस-पास के इलाके का 'सौंदर्यीकरण ' आपके लिये प्राथमिकता हैं मज़दूर नहीं, ग़रीब बच्चे नहीं, सफाई कर्मचारी नहीं जो बिना बचाव उपकरणों के काम कर रहे हैं, जिन्हें जगह-जगह पिछली मज़दूरी भी नहीं मिली है .अभी उत्तरप्रदेश में सफाई कर्मचारी संदीप कुनवार की मौत हुई है.कोरोना से बचाव के लिये गैस का छिड़काव करते हुए।
धन-जन योजना खातों में दो महीने के न्यूनतम वेज के हिसाब से पैसे डालने क्या कोई असंभव बात है ?हमारे प्रधान लफ्फाज़ कुछ नहीं कर सकते तो देश से और देश के बड़े-बड़े पैसे वालों से ,हुंडियां चलाने वाले गुजरात के होनहार व्यापारियों से एक बार फंड की अपील तो करते .आपने एक बार भी मज़दूरों के श्रम और उनकी भूख के बारे में नहीं सोचा.आज आप ' मित्रों' से नहीं साथियों से मुख़ातिब थे , साथियों पर यक़ीन किया होता देशबन्दी के दौर में उनसे ही मज़दूरों के लिये कोई अपील की होती. श्रम को आप "सेवा" कहकर बट्टे खाते डालते हैं
"सोशलडिस्टैन्सिंग" के साथ "लक्ष्मणरेखा" "सेवा" और "साथियों" का समावेश लफ्फाज़ की नई उपलब्धि है.
Shubha Shubha