नागरिकता क़ानून यह संविधान के समक्ष समता' के अधिकार का उल्लंघन करता है, इसलिए यह लोकतंत्र की मूल भावना के खिलाफ है

बहुत से पढ़े लिखे अब भी यह समझ नहीं पा रहे हैं कि नये नागरिकता कानून का विरोध क्यों हो रहा है. लोगों का लगता है कि यह विरोध मात्र भाजपा विरोध है. यह बात जानबूझकर फैलाई गई है.


कई रिटायर्ड जस्टिस और तमाम संभ्रांत लोग भी इस कानून का विरोध कर रहे हैं, जिसका मजबूत आधार है और सरकार इन सवालों के संतोषजनक जवाब नहीं दे पाई है.


यह कानून 'संविधान के समक्ष समता' के अधिकार का उल्लंघन करता है, इसलिए यह लोकतंत्र की मूल भावना के खिलाफ है.


धर्म के आधार पर नागरिकता का प्रावधान करके यह कानून नागरिकों के साथ भेदभाव का रास्ता खोलता है.


यह विधेयक 1985 के असम एकॉर्ड का उल्लंघन करता है.


इस कानून के जरिये भारतीय संविधान का जिन्नाकरण हुआ है. यह कानून जिन्ना और सावरकर की उस थ्योरी को सही साबित करता है कि धर्म के आधार पर राष्ट्र बनाए जाने चाहिए.


यह एक खतरनाक कानून है जो आगे चलकर भारत को हिन्दू-मुस्लिम के आधार पर बांटेगा, बल्कि एक अंतहीन झगड़े को जन्म देगा.


इस विधेयक में तीन पड़ोसी देशों में 'धार्मिक उत्पीड़न' का शिकार लोगों का जिक्र है. इसमें छह अल्पसंख्यक समूहों- हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई को शामिल किया गया है, लेकिन श्रीलंका या म्यांमार से आने वाले मुस्लिमों को शामिल नहीं किया गया है. यह अंतरराष्ट्रीय संधियों का उल्लंघन है. भारत सभी शरणार्थियों से समान व्यवहार के लिए प्रतिबद्ध है.


इस कानून में इसकी व्याख्या भी नहीं है कि किस आधार पर, किन आंकड़ों या विश्लेषणों के सहारे यह निष्कर्ष निकाला गया कि मात्र तीन देशों में विशेष धार्मिक समूह "धार्मिक उत्पीड़न" का शिकार हैं.


सरकार ने बंटवारे का तर्क दिया लेकिन भारत का अफगानिस्तान से कोई बंटवारा नहीं हुआ था. यह कानून सिर्फ तीन देशों की बात करता है, लेकिन बाकी पड़ोसी देशों के हिंदुओं पर भी कुछ नहीं कहता.


नागरिकता संशोधन कानून कहता है कि भारत में घुसपैठ करके आए मुसलमानों के अलावा बाकी सभी को भारत की नागरिकता दी जाएगी. यह विधयेक सभी विदेशी घुसपैठियों को बाहर करने का प्रावधान नहीं करता. यह सिर्फ मुसलमान घुसपैठियों को बाहर करने की बात करता है. जबकि यह समस्या असम से उपजी थी, जहां हर बाहरी को बाहर करने की मांग अभी तक कायम है.फोटो राकेश सिंह की फेसबुक वाल से-


भारतीय संविधान में धर्म के आधार पर नागरिकता का प्रावधान नहीं है. भारत का संविधान धर्म के आधार पर भेद नहीं करता. अगर कोई विदेश से आया है तो सरकार उसे बाहर भेज सकती है. ऐसा करने का आधार धर्म नहीं है. अन्य तरीकों से घुसपैठियों को बाहर किया जा सकता है.


असम में लागू की गई एनआरसी का कोई हल नहीं निकला, जबकि इस पर हजारों करोड़ फूंक दिया गया. फिर देश भर में ऐसी प्रैक्टिस का क्या मतलब है? सरकार अब तक इस सवाल पर मौन है कि असम में जो 19 लाख लोग एनआरसी से बाहर किए गए हैं, उनका क्या होगा?


भारत के संविधान के विरुद्ध, धर्म के आधार पर नागरिकता देने का आपराधिक एवं तालिबानी प्रावधान क्यों दिया जा रहा है? इन सैद्धांतिक बातों के अलावा इस कानून के अंदर तमाम खामियां हैं, जिनपर अलग से विचार करने की जरूरत है.


कृष्ण कांत