वह समय-
......... बाहर हॉल में फ़ैज़ अपनी मशहूर नज्म सुना रहा था -
मुझसे पहली- सी मुहब्बत मेरे महबूब न माँग
मैंने समझा था तूं है तो दरख्शां है हयात
तेरा ग़म है तो गमे- दहर का झगड़ा क्या है ?
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात
तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है
तूं जो मिल जाए तो तक़दीर निगूं हो जाय
यूँ न था ,मैंने फ़क़त चाहा था, यूँ हो जाए
लोग एक- एक शेर पर दाद दे- देकर दीवाने हो रहे थे।शराब में बदमस्त सरदार उठ- उठ कर फ़ैज़ की बलाएँ लेते । फ़ैज़ जिस काग़ज़ से पढ़ कर अपनी नज्म सुना रहा था ,उसे छीन-छीन कर लोग चूमने लग जाते । शायर एक शेर पढ़ता तो लोग पीछे- पीछे उसे बार-बार गाने लग जाते । अजब नज़ारा था । उर्दू शायरी से इतनी मोहब्बत,हुस्ना को ताज्जुब हो रहा था ।
फिर कंवलजीत ने फ़ैज़ से फर्माइश की कि वह अपनी 'तन्हाई' शीर्षक की नज्म सुनाए।बाकी लोग तन्हाई-तन्हाई चिल्लाने लगे ।
फ़ैज़ ने नज्म सुनाई-
फिर कोई आया दिले जार ! नहीं कोई नहीं ।
राहरों होगा, कहीं और चला जाएगा ।
ढल चुकी रात बिखरने लगा तारों का ग़ुबार
लड़खड़ाने लगे एवानों में ख्वाबिदा चिराग़
सो गई रास्ता तक- तक के हर एक राहगुजर
अजनबी खाक के धुँधला दिए क़दमों के सुराग़ ।
गुल करो शमयें ,मय ओ मीना ओ अयाग
अपने बेख्वाब किंवाड़ों के मुकफ्फुल कर लो
अब यहाँ कोई नहीं ,कोई नहीं ,आएगा ।
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जितनी देर गाना होता रहा ,फ़ैज़ ,कंवलजीत के गले में बाँह डाले बैठा रहा । पार्टी के खत्म होने के बाद वे लोग बहुत देर तक बातें करते रहे । हुस्ना भी आकर उनमें शामिल हो गई थी ।
फ़ैज़ चाहता था कि इधर "इक़बाल डे "मनाया जाय ,जिसमें पश्चिमी पंजाब के अदीब आ कर हिस्सा लें ,उधर लाहौर में, रावलपिंडी में "पुरनसिंह डे "मनाया जाय,जिसमें इधर से सिख और हिंदु दोस्त शामिल हों ।दोनों हिस्सों में जिस तरह की खाई पैदा हो गई है, अगर उसे इसी वक़्त न भरा गया तो वह बढ़ती ही जाएगी ।
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पंजाबी उपन्यास हाल मुरीदों का - कर्त्तार सिंह दुग्गल से
प्रमोद बेड़िया