मज़ाक़


फ़िराक़ गोरखपुरी इलाहाबाद स्टेशन के प्लेटफ़ॉर्म पर चहलक़दमी कर रहे थे,कि एक सिंधी गाड़ी से उतरा,सीधे उनके पास आया,अदाब कर,बोला- मुझे दारूवाला कहते हैं,जब मैं अलीगढ़ में पढ़ता था,तो आपको मुशायरे में सुना था,मेरी तमन्ना है आपको सामने सुनु,इसीलिये आया हूँ,तो आपका घर का पता दें !
फ़िराक़ साहब ने पल भर उसे देखा,फिर कहा- बैंक रोड पर आकर किसी को भी कहना- दारूवाला,वह पता बता देगा ॥


संस्मरण-
फ़िराक़ गोरखपुरी
चेहरे का गोबर
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बहुत ख़ामोशी के साथ दालान में क़दम रखा तो फ़िराक़ साहब अँगरेज़ी साहित्य के किसी विषय पर लेक्चर दे रहे थे । फ़िराक़ साहब की नज़रें छत की तरफ़ थीं और वह लड़की के बिल्कुल दूसरी तरफ़ घूरते हुए लेक्चर दे रहे थे । फ़िराक़ साहब लेक्चर में व्यस्त, लड़की लेक्चर को समेटने में व्यस्त और मैं दृश्य में, वह वाकई बहुत ख़ूबसूरत थी । 
मैं अभी गौर ही कर रहा था कि अचानक लेक्चर ख़त्म हो गया  और उसी रफ़्तार से लड़की भी उठी और फ़ौरन दृश्य बदल गया । फ़िराक़ साहब ने अजीब-सी नज़रों से मेरी तरफ़ देखा... और फिर एक यादगार मुहब्बत के साथ बोले - "कहिये मौलाना.. इतनी सुबह ख़ैरियत तो है ।''
''कुछ ज़रूरी बातें करनी हैं.... '' -मैंने दबे शब्दों में कहा । 
इसी बीच फ़िराक़ साहब ने सिगरेट सुलगायी । मैंने मौक़ा ग़नीमत जानकर पूछा - ''यह लड़की कौन थी... ?'' 
''कौन लड़की ?'' 
''अरे यह जो अभी यहाँ बैठी हुई थी ।'' 
''यह किसी डिग्री कालेज़ की लेक्चरार है । मुझसे कुछ पूछने आयी थी ।'' 
''अच्छा ... लेकिन आप उसकी तरफ़ देखकर बातें क्यों नहीं कर रहे थे... इतनी खूबसूरत, ख़ुश शक्ल लड़की आपसे बातचीत कर रही थी और आप छत की तरफ़ देख रहे थे... आख़िर यह क्या बात हुई ।''  - मैंने हद से ज़्यादा हिम्मत की । 
फ़िराक़ ने एक लम्बा कश हवा में फ़ेका और टेढ़ा मुँह करते हुए बोले - ''ख़ुश शक्ल, ख़ूबसूरत ! मियाँ साहबज़ादे अभी आप बच्चा हैं । ख़ूबसूरत शख़्सियत के लिए सिर्फ़ ख़ुश शक्ल होना काफ़ी नहीं होता। उसे थोड़ा-सा समझदार भी होना चाहिए और फिर अदब (साहित्य) वगैरह को समझने के लिए थोड़ी-बहुत बदचलनी भी ज़रूरी है जो इसके बस की बात नहीं थी.. फिर आप उसके चेहरे का गोबर देख रहे थे ...।'' 
''गोबर'' - मैं चौंका। 
''जी हाँ.. उसका मेकअप ।'' 
''अब मेकअप तो लड़कियाँ करती ही हैं...'' मैने कहा । 
''मैकअप लड़कियाँ नहीं, औरतें करती हैं । हुस्न अगर वाक़ई हुस्न है तो फिर उसे किसी सहारे की ज़रूरत नहीं पड़तीं, जो हुस्न सहारा माँगे तो फिर वह फ़ितरी हुस्न नहीं मिलावट हो गया ।'' 
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- अली अहमद फ़ातमी ( फ़िराक़ गोरखपुरी को याद करते हुए) 
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