मार्क्सवाद कोई किताबी ज्ञान नहीं है।यह व्यवहारसिद्ध विज्ञान है।

 


कार्ल मार्क्स की पुण्यतिथि पर विशेष


घेटो यानी बंद समाज से कैसे निकलें !


कम्युनिस्ट घोषणापत्र का पहला पैराग्राफ बहुत ही महत्वपूर्ण है और आज भी प्रासंगिक है, लिखा है, "यूरोप को एक भूत आतंकित कर रहा है-कम्युनिज्म का भूत।इस भूत को भगाने के लिए पोप और ज़ार,मेटर्निख़ और गीजो,फ्रांसीसी उग्रवादी और जर्मन खुफ़िया पुलिस- बूढ़े यूरोप की सभी शक्तियों ने पुनीत गठबंधन बना लिया है।" इस तरह की शक्तियों का भारत में भी गठबंधन है।बस नाम अलग अलग हैं। भारत में साम्प्रदायिक, जातिवादी, उग्रवादी, पृथकतावादी, प्रतिक्रियावादी, अतीतपूजक, कारपोरेट पंथी आदि एकजुट हैं और आए दिन वाम पर हमले करते रहते हैं। वे भारत को लोकतांत्रिक देश बनाने की बजाय घेटो समाज बनाने में लगे हैं।


असल में भारत जैसे जटिल वर्गीय समाज में विचार और सामाजिक परिवर्तन की जंग लड़ने में मार्क्सवाद को जंग का हथियार बनाने की बजाय दिल जीतने का विज्ञान बनाने की जरूरत है।


मार्क्सवाद कोई किताबी ज्ञान नहीं है।यह व्यवहारसिद्ध विज्ञान है। मार्क्सवादी वह है जिसके पास सब समय विकल्प रहते हैं। मार्क्सवादी वह नहीं है जिसके पास सीमित विकल्प होते हैं या एक ही विकल्प के रूप में मार्क्सवाद होता। वे तमाम विकल्प खोजे जाने चाहिए जो शोषणमुक्त समाज का सपना साकार करने में मदद करें।इस सपने को विकल्पों की हर समय उपलब्धता के आधार पर ही हासिल कर सकते हैं।मसलन् मुझे अभी दिल्ली जाना है लेकिन ट्रेन नहीं है ,ऐसी स्थिति में जो भी उपलब्ध विकल्प मेरी क्षमता से संभव हो सकता है उसका मुझे इस्तेमाल करना चाहिए। मार्क्सवाद किस तरह लागू होगा यह निर्भर करता है कि उत्पादक शक्तियों के पास किस तरह की ज्ञान क्षमता है और मार्क्सवादी सामयिक सामाजिक चेतना और यथार्थ से कितने सम्पन्न हैं।


यदि बुर्जुआजी के भक्तों की मानें तो मार्क्सवाद का अंत हो गया है और देश-दुनिया में कोई मार्क्सवादी नहीं बचा है।सवाल यह है कि ये लोग मार्क्सवाद से इतने भयभीत क्यों हैं ?
सच्चाई यह है हर वह व्यक्ति मार्क्सवादियों का मित्र है जो व्यक्ति के द्वारा व्यक्ति के शोषण को खत्म करना चाहता है। शोषणमुक्त समाज का सपना वे लोग भी देखते हैं जिन्होंने कभी मार्क्स का नाम तक नहीं सुना है। शोषणमुक्त समाज का सपना वे लोग भी देखते हैं जो मार्क्सवाद को जानते,मानते और अपनाते हैं। मार्क्सवादी का मतलब संयासी नहीं है।


एक मार्क्सवादी का दिल बड़ा होता है,जो बड़ा दिल नहीं कर पाते वे कठमुल्ले रह जाते हैं। मार्क्सवादी के लिए कोई व्यक्ति अछूत नहीं है और मनुष्य की बनाई कोई भी वस्तु, मूल्यवान विचार,प्रासंगिक आचार-व्यवहार और आदतें अछूत नहीं हैं।
वे मनुष्यमात्र का सम्मान ही नहीं करते उसको अधिकारसंपन्न भी देखना चाहते हैं। समाज में ऐसे लोग हैं जो मनुष्य का सम्मान करते हैं लेकिन उसे अधिकारहीन रखना चाहते हैं।मार्क्सवादी की बुनियादी चिन्ता है मनुष्य को अधिकार संपन्न बनाने की है।


मार्क्स इसलिए महान बने क्योंकि वे समाज का मर्म पहचानने में सफल रहे और मनुष्य को शोषण मुक्त बनाना चाहते थे।यही प्रत्येक मार्क्सवादी का लक्ष्य है।


भारत विभाजनों का देश है।वर्ण विभाजन, गोत्र विभाजन,जाति विभाजन, धार्मिक विभाजन, अमीर-गरीब का विभाजन, पूंजीपति-मजदूर का विभाजन, मीडिया अमीर- मीडिया गरीब, डिजिटल समृद्ध -डिजिटल गरीब का विभाजन, छोटे-बड़े का विभाजन आदि। भारतीय समाज बदल रहा है लेकिन पुराने विभाजन खत्म नहीं हो रहे। बल्कि विभाजन एक-दूसरे लदे हुए हैं।व्यक्ति एकाधिक विभाजनों की चपेट में है। विभाजन उसे भी प्रभावित करते हैं जो इनको मानते हैं और उनको भी जो इनको नहीं मानते।सवाल यह है विभाजनों से मुक्ति मार्ग क्या है ?


इसी तरह संस्कृति की जगह निंदा और नफरत की संस्कृति आज जीवन और सत्ता के केन्द्र में आ गयी है।यह व्यक्तित्वहीनता की अभिव्यक्ति है। इसमें रस वे लोग लेते हैं जो दिलो-दिमाग से आधुनिक नहीं हैं।वे आलोचना करना नहीं जानते। आलोचना की संस्कृति आधुनिक है। आलोचना से आधुनिक व्यक्तित्व का निर्माण होता है। जिस जाति,समुदाय या व्यक्ति को निंदा -नफरत संस्कृति की आदत पड़ जाती है वह घेटो में जीने लगता है। रूढ़ियों और फेक रस लेता है ।जबकि आलोचना घेटो से बाहर निकालने में मदद करती है।


भारत के शहरों में भी अभी पूरी तरह कम्प्यूटर क्रांति नहीं हुई है। शहरों में मात्र 20 प्रतिशत घरों में कम्प्यूटर है।गांवों में मात्र 5 प्रतिशत घरों में कम्प्यूटर है। इंटरनेट की भी कोई सुखद स्थिति नहीं है।शहरों में इंटरनेट कनेक्शन वाले मात्र 8प्रतिशत परिवार हैं।गांवों में मात्र 1 प्रतिशत परिवारों के पास इंटरनेट है। यानी भारत डिजिटल अमीर और डिजिटल गरीब में बंटा हुआ है।चंडीगढ़,दिल्ली और गोवा में मात्र 10 फीसदी से ज्यादा घरों में इंटरनेट है।बिहार में 1 प्रतिशत से भी कम घरों में इंटरनेट है।यानी भारत संचारक्रांति से अभी कोसों दूर है। उलटे संचार क्रांति ने जीवन में असंख्य घेटो बना दिए हैं। अब हम घेटो यानी बंद समाज,बर्बर समाज की इकाई बन गए हैं।यही वजह है हमें हिंसा ,नफरत और बर्बरता पसंद है,उसका सहज समर्थन करते हैं।


कार्ल मार्क्स / अली सरदार जाफ़री


‘नीस्त पैग़म्बर व लेकिन दर बग़ल दारद किताब’[1]
-जामी


वह आग मार्क्स के सीने में जो हुई रौशन
वह आग सीन-ए-इन्साँ में आफ़ताब है आज
यह आग जुम्बिशे-लब जुम्बिशे-क़लम भी बनी
हर एक हर्फ़ नये अह्द की किताब है आज
ज़मानागीरो-खुदआगाहो-सरकशो-बेबाक[2]
सुरूरे-नग़मा-ओ-सरमस्ती-ए-शबाब[3] है आज
हर एक आँख में रक़्साँ है कोई मंज़रे-नौ
हर एक दिल में कोई दिलनवाज़ ख़्वाब है आज
वह जलवः जिसकी तमन्ना भी चश्मे-आदम को
वह जलवः चश्मे-तमन्ना में बेनक़ाब है आज
शब्दार्थ:


1. वह पैग़म्बर नहीं लेकिन साहिब-ए-किताब है
2. सार्वभौमिक, आत्मचेतस,स्वच्छन्द और निर्भीक
3. यौवन के आह्लाद का उन्माद
Jagadishwar Chaturvedi