"हिंदू बनने की होड़ में "हिंदोस्तान" ग़ायब"

राज्यसभा में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह नस्लवादी कानून को तर्कसंगत ठहराते हुए कहते हैं कि यह कानून नागरिकता देने का कानून है नागरिकता लेने का नहीं है। इस पर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल खड़े होते हैं और केंद्रीय गृह मंत्री की हां में हां मिलाते हुए कहते हैं CAA नागरिकता देने का ही कानून है, नागरिकता लेने का कानून नहीं है. लेकिन जब हम इसे एनआरसी, एनपीआर के साथ जोड़ते हैं तब इसके भयानक परिणाम नज़र आते हैं। यानी कपिल सिब्बल नागरिकता कानून को मान्यता देते हुए CAA के विरोध को खारिज कर रहे हैं और सिर्फ एनआरसी, एनपीआर का ही विरोध कर रहे हैं. कपिल सिब्बल क्या यह कहना चाह रहे हैं कि अगर सरकार एनआरसी एनपीआर को खारिज कर दे तो सीएए का विरोध खत्म हो जाएगा? इसे विपक्ष की कमजोरी कहें या मुद्दों पर उसकी पकड़ का कमजोर होना? जो असम एनआरसी से बाहर हुए मुसलमानों के मुद्दे को उठा ही नहीं पा रहा है. असम एनआरसी में 19 लाख से ज्यादा लोग नागरिकता साबित नहीं कर पाए उन्हें संदिग्ध नागरिक माना गया था इन 19 लाख में साढ़े चार लाख के करीब मुसलमान है। नागरिकता संशोधन क़ानून मुसलमानों को नागरिकता देने के लिए नहीं है। इसके मुताबिक़ हिन्दू, सिख, जैन, बोद्ध, पारसी, ईसाई जो एनआरसी से बाहर हुए हैं उन्हें तो 'शरणार्थी' मानकर नागरिकता दे दी जाएगी, लेकिन मुसलमानों पर 'घुसपैठिया' का ठप्पा लगाकर उन्हें डिटेंशन सेंटर में रखा जाएगा। 
हालांकि NRC से बाहर हुए लोगों के पास अभी फारेन ट्रिब्यूनल कोर्ट का रास्ता बचा हुआ है, सवाल यह है कि अगर वहां भी सब अपनी नागरिकता साबित नहीं कर पाए तब उनका क्या होगा? क्योंकि CAA के तहत मुसलमान होने के कारण उन्हें तो नागरिकता मिलेगी नहीं तब वे कहां जाएंगे? क्या करेंगे? क्या उन्हें गुलाम बनाया जाएगा? क्या उन्हें बंधुआ मजदूर बनाया जाएगा? उन्हें किस देश को सौंपा जाएगा? और कौनसा एसा देश है जो उन्हें स्वीकार करेगा? जब उन्हें अपने ही देश में 'घुसपैठिया' बना दिया गया तब उन्हें कौनसा देश अपना नागरिक मानेगा? और क्यों मानेगा? हां अगर वे धर्म परिवर्तान कर लेते हैं तो नस्लवादी क़ानून लाने वाली सरकार उन्हें भी नागरिकता दे सकेगी, क्योंकि धर्म परिवर्तन करने से वे नस्लवादी क़ानून के मानकों को पूरा कर देंगे। अब सवाल है कि क्या नस्लवादी क़ानून को लाने का मक़सद धर्म परिवर्तन कराना भी है? ये सवाल संसद में उठने चाहिए थे, लेकिन विडंबना देखिए सड़क से लेकर संसद तक ये सारे सवाल गायब हैं। 
संसद के पिछले सत्र में भी असम NRC से बाहर हुए मुसलमानों का मुद्दा नहीं उठ पाया था और इस बार भी नहीं उठ रहा है। CAA के समर्थन में रैलियां करने वाले सत्ताधारी दल के नेता भी अमित शाह की भाषा बोल रहे हैं कि यह तो नागरिकता देने का क़ानून है, लेकिन असम NRC से बाहर हुए मुसलमानों के लिए उनके पास भी वही घिसा पिटा जवाब है कि एक भी भारतीय को चिंतित होने की जरूरत नहीं है। सवाल है कि चिंतित क्यों न हुआ जाए? क्या कारगिल की जंग लड़ने वाले सनाउल्लाह को चिंतित होने की जरूरत नहीं है?  जिसका नाम NRC की लिस्ट से गायब है। जब एक पढ़ा लिखा कैप्टन का परिवार अपनी नागरिकता साबित नहीं कर पाया तब उस मजबूर का क्या होगा जो बिल्कुल अनपढ़ है? दरअसल इस्लामोफोबिया से ग्रस्त भाजपा 'हिन्दू वोट' बैंक की राजनीति की राजनीति ही मुस्लिम विरोध पर टिकी है। इसलिए उसकी नज़र में हर वह मुसलमान 'घुसपैठिया' है जो NRC के तहत अपनी नागरिकता साबित नहीं कर पाएगा, भले ही वह पीढ़ी दर पीढ़ी भारत में ही रहता क्यों न आ रहा हो। विपक्ष को इस ओर गंभीरता से सोचना होगा, और सरकार से सवाल करना होगा, कि असम के उन साढे चार लाख मुसलमानो का क्या होगा जो NRC में बाहर हुए हैं।
(Wasim Akram Tyagi)