देशभर में क्रांतिकारी दलों के संयुक्त मोर्चे की आहट कहीं सुनाई नहीं पड़ रही शायद और दमन का इंतेज़ार है।

चुनौती भरे वक़्त की सबसे अहम उपलब्धि ये होती है कि ये बीच मेड़ पर खड़े रहने का स्थान नहीं छोड़ता। अगर कोई बिल्कुल निष्क्रिय या जड़ पड़ा हुआ है, अधमरा जैसा तो वो तो तटस्थ रह सकता है हालांकि उसे भी न्यूट्रल बने रहना दुश्वार होता जाएगा, उसे हर रोज़ अपने विवेक का गला घोंटना होगा, उसे कुचलना होगा लेकिन यदि आप राजनीतिक, साहित्यिक रूप से सक्रिय हैं तो आपको एक पाला चुनना ही पड़ेगा। अब देखिए ना, केजरीवाल जैसा शातिर काइयां आदमी  भी अपनी असलियत आम आदमी के सामने छुपा नहीं पाया हालांकि हमे भ्रम कभी नहीं रहा।


आज जन्तर मन्तर पर हुए शानदार कार्यक्रम  'हम देखेंगे' से ही मुझे मालूम हुआ कि अशोक वाजपेयी भी अब निज़ाम परस्त नहीं रहे। अरुंधति रॉय तो शानदार बोलती ही हैं लेकिन रैना जी अंग्रेज़ी कविता को मैं पहला नम्बर दूंगा, हालांकि मैं रिकॉर्ड नहीं कर पाया। युवाओं का जोश उम्मीद जगाता है और फ़ासिस्टों के हौसले पस्त करने वाला है। यूथ का काफ़ी बड़ा हिस्सा जो संघियों के तम्बू में जा चुका था, अब मुक्त हो  गया है। उदारवादियों में हलचल वामपंथियों के मुक़ाबले कहीं ज्यादा है।  संसदीय वाम सी पी आई-सी पी एम सदमे  में हैं, शायद ही उबर पाएं और क्रांतिकारी वाम अपनी ढपली अपना राग मोड में। देशभर में क्रांतिकारी दलों के संयुक्त मोर्चे की आहट कहीं सुनाई नहीं पड़ रही शायद और दमन का इंतेज़ार है। निज़ाम पेंच कसता ही जा रहा है और कसता ही जाने वाला है। वो दिन अब दूर नहीं लगता जब क्रांतिकारी सेगमेंट के पास देशव्यापी फ़ासीवाद विरोधी मोर्चा बनाने की सिवा पर्याय बचेगा ही नहीं।


सत्यवीर सिंह


लेखक प्रगतिशील विचारक है