देश को ऐसे कुजात लोहियावादियों की जरूरत जो दस क्रांति कर सकें। - डॉ. सुनीलम

डॉ लोहिया के जन्मदिवस 23 मार्च पर विशेष लेख


23 मार्च 2020  को स्वतंत्रता संग्राम सेनानी ,गोआ मुक्ति संग्राम के जनक समाजवादी चिंतक डॉ. राममनोहर लोहिया का  जन्मदिवस है।23 मार्च को  समाजवादी समागम द्वारा  30 जनवरी को गांधी जी के 150 वे जन्मदिवस पर  शुरू की  गई ,भारत जोड़ो - संविधान बचाओ ,समाजवादी विचार यात्रा का  समापन  हैदराबाद में  होना था ,


परन्तु कोरोना संक्रमण के चलते सभी बूकिंग रद्द के कारण वर्धा स्थित सेवाग्राम गांधी आश्रम में यात्रा का समापन किया।
 डॉ लोहिया कभी भी अपना जन्मदिन मनाए जाने के पक्ष में नहीं थे क्योंकिं इस  दिन  शहीद भगत सिंह ,राजगुरु और सुखदेव को फांसी दी गई थी।
आखिरकार डॉ. लोहिया को इतनी तवज्जो क्यों? नई पीढ़ी के मन में यह सवाल उठना स्वाभाविक है। क्योंकि उन्होंने न तो डॉ. लोहिया को देखा है न ही उनकी किताबें पढ़ी हैं। जन्मदिन 23 मार्च को तथा निर्वाण दिवस 12 अक्टूबर को मीडिया के द्वारा डॉ. लोहिया से जुड़ी अधिक जानकारी भी कभी इस तरह प्रकाशित नहीं की जाती । लोहिया जी के बारे में स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और गोआ मुक्ति आंदोलन के जनक होने के साथ साथ  देश के ओरिजिनल चिंतक होने के वावजूद स्कूलों और कॉलेजो में डॉ लोहिया को नहीं पढ़ाया जाता। यह हालत तब है जबकि 67 के बाद से जो भी सांसद  चुने गए , उनमें लोहिया जी को मानने वालों की संख्या 100 - 150 के बीच के कम कभी नहीं हुई।
लेकिन अखिल भारतीय स्तर की सोशलिस्ट पार्टी नहीं होने के कारण वह संख्या कभी 50 से अधिक दिखलाई नहीं पड़ी।


जिन लोगों ने लोहिया को कभी नहीं देखा उनके लिए डॉ. लोहिया के सहयोगी श्रीमती इन्दुमती केलकर के चित्रण का उल्लेख आवश्यक है। उन्होंने लिखा  ‘‘सांवली, नाटी-सी पहलवानी सांचे में ढली मूर्ति, विशाल माथा, चश्में के शीशे में चमकने वाली तीखी बांधने वाली नजर, आत्मविश्वास की दृढ़ता और गहराई का संकेत देने वाली ठोड़ी, होंठों के किनारों से छलकती शरारत भरी नटखट हंसी, दिलदार, खुली तबियत, प्रफुल्ल मानसिकता लोहिया के व्यक्तित्व के प्रमुख विशेषताएं थीं।’’ डॉ. लोहिया का भारतीय राजनीति पर आज भी प्रभाव दिखलाई पड़ता है। इस तथ्य के बावजूद कि उनका न तो कोई बैंक बेलेंस था न ही अपना कोई मकान। यहां तक कि सांसद बनने के बाद उन्होंने अपने साथियों को खुद के लिए कार इसलिए नहीं खरीदने दी क्योंकि वे उसका खर्चा नहीं उठा सकते थे। 
लोहिया ने खुद को सेपर्स और माइनर्स दल का सिपाही कहा था। यानी सफरमैना - पहाड़ खोद कर, जंगलों के झाड़-झंखाड़ काटकर, नदियों पर पुल बनाकर यात्रा का मार्ग सुगम करने वाला व्यक्ति। डॉ. लोहिया कहते थे ‘लोग मुझे समझेंगे लेकिन मेरे मरने के बाद।’  वे नई राजनीति, नयी दुनिया तथा नये मनुष्य का सृजन करना चाहते थे। वे बुत  और स्मारक बनाये जाने के पक्ष में नहीं थे। वे कहते थे ‘किसी भी व्यक्ति का बुत  या स्मारक उसके मरने के 300 साल बाद बनाया जाना चाहिए जबकि उसके काम का पूर्वाग्रह रहित मूल्यांकन होने लगता है।  ख्याति की धुंध छूट जाती है।’ 
खुद के बारे में उन्होंने जो कुछ कहा उसमें एक बात तो हुई कि डॉ. लोहिया के मरने के बाद उन्हें लगातार संसद से लेकर सड़कों तक याद किया जाता रहा। आज यह सोचना जरूरी है कि क्या डॉ. लोहिया समाजवाद की यात्रा का मार्ग सुगम करने में कामयाब रहे?
समाजवादी समाज की स्थापना यानी समतापूर्ण एवं समृद्ध समाज की स्थापना के लिए समाजवाद के जिस रास्ते पर डाॅ लोहिया चलना चाहते थे उस रास्ते पर चलने वालों के लिए उन्होंने सरल शब्दों में समाजवाद की व्याख्या सात नाइंसाफियों को खत्म करने के तौर पर सप्तक्रांति  के तौर पर  परिभाषित की थी। जन्मशताब्दी वर्ष के समय हमने देश भर में सप्तक्रांति विचार यात्रा भी की थी। देश भर में 350 कार्यक्रम कर  सप्तक्रांति के सन्देश को जन जन तक पहुंचाने का काम किया था । सप्तक्रांति की व्याख्या करते हुए  डॉ लोहिया ने  यह  कहा था कि हमें अपना मूल्यांकन इस तौर पर करना चाहिए कि हम इन नाइंसाफियों-अन्यायों के खिलाफ आम लोगों को खड़ा करने में कितने कामयाब रहे?
आज इन सात नाइंसाफियों का मूल्यांकन करना  भी जरूरी है। देश के बाहर और भीतर आर्थिक विषमता को समाप्त करने को सर्वोच्च प्राथकिता दी थी। आंकड़ेबाजी में फंसे वगैर यह कहा जा सकता है कि देश और दुनिया में विषमता-गैरबराबरी की स्थिति बद से बदतर हुई है। हाल के सर्वे ने बताया है कि दुनिया के एक प्रतिशत लोगों का 70 प्रतिशत संसाधनों पर कब्जा है तथा दुनिया की भारत सहित दो तिहाई आबादी सम्मानपूर्वक जीवन जीने के लिए न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति करने में अक्षम है।  पूँजी के लगातार बढ़ते केंद्रीकरण अर्थात् बाजार पर कुछ कारपोरेट घरानों के कब्जे के खिलाफ संघर्ष ओक्यूपाई वॉल स्ट्रीट के तौर पर प्रतीकात्मक तौर पर किया जा है ,अडानी और अंबानी जैसे पचास कारपोरेट घरानों को रोकने के लिए सुनियोजित तौर पर जो कुछ किया जा रहा वह नाकाफी है ।विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियां को रक्षा,बीमा ,खुदरा व्यापार में एफडीआई के शत प्रतिशत छूट दी जा रही है । मोदी सरकार ने गत 6 वर्षों में 14 लाख की छूट कॉर्पोरेट को दी है।
डॉ. लोहिया ने सात नाइंसाफियों में लिंगभेद, रंगभेद तथा जातिभेद को प्रमुख माना था। लिंगभेद को समाप्त करने के लिए पुरुष प्रधान समाज की मानसिकता को झकझोरने के लिए उन्होंने द्रोपदी बनाम सावित्री की बहस खड़ी की थी। सभी वर्णों की महिलाओं को पिछड़ा बतलाकर उन्होंने ‘‘पिछड़ा पावे सौ में साठ’’ का सैद्धांतिक नारा दिया था। दलित परिवार में जन्मी सफाईकर्मी सुक्खो रानी को 1957 में ग्वालियर की रानी के खिलाफ चुनाव लड़ा कर उन्होंने महिलाओं को ताकत देने का प्रयास किया था। लेकिन आज भी कार्यपालिका, न्यायपालिका, विधायिका, मीडिया नौकरियों तथा व्यापार लगभग सभी क्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी 15 प्रतिशत भी नहीं पहुंच सकी है। महिलाओं के खिलाफ हिंसा लगातार बढ़ती जा है ।
जातिभेद अलग अलग तरीकों से समाज में जड़ जमाये हुए है। हालांकि डॉ. लोहिया ने पिछड़ी जातियों के आरक्षण के सवाल को जातिप्रथा खत्म करने के परिप्रेक्ष्य में उठाया था। लेकिन जाति-उन्मूलन के स्थान पर जातिगत समूहों का दखल राजनीति में सतत रूप से बढ़ता चला जा रहा है। विभिन्न जाति समूहों के बीच रोटी-बेटी का संबंध होना तो दूर गैरजातीय शादी करने वाले युवाओं की आज भी ऑनर किलिंग लगातार की जा रही है। 
रंगभेद को लेकर डॉ. लोहिया ने आजीवन संघर्ष किया। यहां तक कि उन्होंने अमरीका जाकर रंगभेद के खिलाफ खुद सत्याग्रह किया, जिस कारण उन्हें गिरफ्तार भी किया गया। चमड़ी के रंग से सुंदरता को जोड़ने के खिलाफ वे लगातार बोलते और लिखते रहे। लेकिन आज भी अमरीका में अश्वेत राष्ट्रपति बनने के बावजूद अश्वेत युवाओं को गोली मारने और सजा देने की घटनाएं आम बनी हुई हैं। 
डॉ. लोहिया ने हिंसा के माध्यम से वर्चस्व कायम रखने के प्रयास को एक प्रमुख नाइंसाफी के तौर पर देखा था। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आज भी साम्राज्यवादी देश हथियारों के दम पर दुनिया में राज्य कर रहे हैं। राज्य-हिंसा देश और दुनिया में आतंकी स्वरूप लिए हुए दिखलाई पड़ती है। गांव से लेकर शहर तक हिंसक समूहों की ताकत कम होने की बजाय बढ़ती जा रही है। डॉ. लोहिया हिंसा को रोकने के लिए सत्याग्रह के मार्ग पर चले थे। उन्होंने स्टालिन के मुकदमों से लेकर सर्वहारा की तानाशाही पर सवाल खड़े किये। नेपाल में राणाशाही तथा राजशाही के खिलाफ संघर्ष को उन्होंने ताकत दी थी। 


डॉ. लोहिया ने निजता के अतिक्रमण के सवाल को सात नाइंसाफियों में जोड़ा था। आज निजता का सवाल समाज में अहम हो गया है। डॉ.  लोहिया की मान्यता थी कि धार्मिक आस्थाएं, भोजन और वेशभूषा तथा भाषा कुछ ऐसे विषय हैं जिन पर संगठन या सरकार द्वारा अतिक्रमण नहीं किया जाना चाहिए तथा जो भी इस तरह के प्रयास हों उनको विफल किया जाना चाहिए।  नरेन्द्र मोदी की सरकार गठन के बाद गौ रक्षा के नाम पर 150 अल्पसंख्यक  नागरिकों की मोब लीन्चिंग की जा चुकी है। महिलाओं को क्या पहनना चाहिए ?  कब घर वापस पहुंच जाना चाहिए, जैसे निजी मुद्दों पर भी विभिन्न कट्टरवादी संगठनों द्वारा फतवे जारी किये जा रहे हैं. भोजन में भी क्या खाया जाय, क्या नहीं, यह भी संगठनों द्वारा तय किया जा रहा है। 
इस तरह ऐसा लगता है कि देश और दुनिया में सातों नाइंसाफियां न केवल कायम हैं बल्कि लगातार बढ़ती चली जा रही हैं। इस कारण सप्तक्रांति की जरूरत आज पहले से कहीं अधिक है।
परंतु आज सप्तक्रांति से आगे बढ़ने की जरूरत है। पर्यावरण संकट चरम पर है जिससे मानवता के अस्तित्व का संकट पैदा हो गया है। पर्यावरण से छेड़छाड़ का परिणाम नई नई बीमारियों का पैदा होना है। इसी तरह विकास के वर्तमान मॉडल के चलते दुनिया मे बेरोजगारी चरम है।आर्टिफीसियल इंटेलीजेंस के  बढ़ते  उपयोग से  बेरोजगारी संकट  खतरनाक स्तर तक पहुंचने को संभावना पैदा हो गई है।इसके साथ 2 दुनिया भर में युवा पीढ़ी नशे की गिरफ्त आती जा रही  है। संचार क्रांति ने दुनिया को नजदीक ला दिया है ,परंतु डिजिटल डिवाइड भी चरम पर है। तकनीक का रोजमर्या  इस्तेमाल करने वाली दुनिया और तकनीकी तौर पर पराश्रित दुनिया। 
लेकिन दूसरा पक्ष यह भी है कि नाइंसाफियों के खिलाफ जनआंदोलन लगातार सशक्त और तेज होते जा रहे हैं। यात्रा के दौरान हमने सत्याग्रह का अहम प्रयोग लाखों महिलाओं को करते देखा ,हम 45 शाहीन बागों में गए ,51 दिन में हुए 162 कार्यक्रमों के दौरान हमे देश भर में चल रहे जनांदोलनों का नेतृत्व रहे साथियों से मिलने और अधिक  जानकारी प्राप्त करने का मौका मिला।
सोशल मीडिया ने प्रतिरोध की ताकत को काफी बढ़ाया है। अब नाइंसाफीयों को  छिपाना संभव नहीं रहा  है।


डॉ. लोहिया की भारतीय संस्कृति और लोकमानस को लेकर गहरी समझ थी  उन्होंने कहा था कि ‘‘राम, कृष्ण और शिव ने देश के लोकजीवन को सर्वाधिक प्रभावित किया है। राम को उन्होंने मर्यादित तथा नियमों से जीवन जीने वाले, कृष्ण को नियमों और मर्यादाओं को तोड़कर जीवन जीने लेकिन सभी के साथ एकात्म भाव रखने वाले तथा शिव को काल की सीमाओं के परे सृजक का जीवन जीते हुए शाश्वतता प्रदान करने वाले मानवता के कल्याण के लिए विष पीने वाले परिणामों की चिंता किये वगैर भस्मासुर पैदा करने वाले तथा ताण्डव नृत्य कर संसार में उथल-पुथल मचाने वाले तथा समाज के शोषित-उपेक्षित और अपमानित समूहों को एकजुट करने वाले प्रतीक के तौर पर देखा था। यह माना जाता है कि वे शिव- शिव संस्कृति से प्रभावित थे।
डॉ. लोहिया वैचारिक तौर पर मार्क्स की तुलना में गांधी जी से अधिक प्रभावित थे। हालांकि 
1934 में जब कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी कांग्रेस के भीतर बनी थी ,तब उसकी अधिकृत विचारधारा मार्क्सवादी ही थी । उन्होंने गांधीवादियों को तीन श्रेणियों में बांटा था- मठी गांधीवादी, सरकारी तथा कुजात गांधीवादी। वे खुद को कुजात गांधीवादी कहते थे। देश में सक्रिय लोहियावादियों को भी इन श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है। जरूरत ऐसे कुजात लोहियावादियों की है जो केवल लोहिया भक्ति करते हुए केवल लोहिया चालीसा का पाठ न करें, बल्कि लोहिया खुद को जिस सफरमेना के तौर पर देखते थे वही सफरमेना बनकर समाजवाद के रास्ते को सुगम बनायें।
डॉ. लोहिया इस मायने में सफल व्यक्ति कहे जायेंगे कि उन्होंने समाजवादियों को गैरकांग्रेसवाद का सूत्र देकर उन्हें एक बार नहीं कई बार सत्ता में पहुंचने का अवसर प्रदान किया लेकिन यह याद रखना आवश्यक है कि डॉ. लोहिया समाजवाद के रास्ते को सफरमेना बनकर सुगम बनाना चाहते थे। सत्ता पाने के रास्तों को सुगम बनाना उनका उद्देश्य नहीं था। इसका अर्थ यह नहीं कि वे चुनाव लड़ने या सत्ता हासिल करने के खिलाफ थे। उन्होंने बार-बार ‘विल टू पावर’ की बात कही। सोशलिस्ट पार्टी बनाने के बाद उन्होंने सात साल में सत्ता हासिल करने पर लक्ष्य भी रखा लेकिन सत्ता मिलने पर छह महीने के भीतर सत्ता को खुद को साबित करने की समयसीमा भी दी। इस समय देश मे कोई भी सरकार ऐसी नहीं है,जो डॉ लोहिया की कसौटी पर खरी उतरे।


डॉ.  सुनीलम
पूर्व विधायक, ,राष्ट्रीय महामंत्री 
समाजवादी समागम
मोबाः 0945109770
ईमेल : samajwadisunilam@gmail.com