बिहार की राजनीति ने मार्क्सवाद को एक बार फिर सही साबित किया!

बिहार में राज्य सभा के टिकट के बंटवारे में सामाजिक न्याय के पुरोधा कहे जाने वाले आर जे डी तथा लालू यादव ने एक बार फिर भूमिहार तथा बनिया जाति के पूंजीपतियों को टिकट दिया है। इसके पहले नीतीश ने भी भूमिहार जाति के पूंजीपति को टिकट दिया था। यह सब क्यों हो रहा है, इस तथ्य पर हम विचार करें ताकि सामाजिक न्याय, पूंजी तथा पूंजीवादी लोकतंत्र के संबंधों को समझ सकें।
घोषित तौर पर भाजपा व कांग्रेसी तो ऊंची जाति के धनिकों के सामाजिक आधार पर निर्भर थे ही, सामाजिक न्याय का नारा देने वाले आरजेडी, समाजवादी पार्टी व मायावती की बसपा भी पूंजी के इन बड़े मालिकों से चुनावी लोकतंत्र का खेल खेलने के लिए बड़े पैमाने पर पैसा पाने के लिए टिकट उनके हाथ बेच रहे हैं। ऐसे में अब यह उम्मीद करना बेमानी है कि पूंजीवादी लोकतंत्र में गरीब, दलित, पिछड़ों व मुस्लिमों को जगह मिलेगी। मुस्लिमों में भी जो अरबपति हैं, हिंदुत्ववादी फासीवादी ताकत के साथ अपने मुनाफे को बनाए रखने के लिए तालमेल बनाए हुए हैं। प्रेम जी की विप्रो कंपनी का एनआरसी व एनपीआर या दूसरे सरकारी कार्यक्रमों में काम के ठेके लेने की कोशिश इस दिशा में उनके प्रयासों के रूप में देखा जा सकता है।
 बीसवीं सदी के 90 के दशक के बाद मंडल कमीशन व राम मंदिर निर्माण आंदोलन के  हंगामे के बीच में मनमोहन सिंह व नरसिम्हा राव ने नई आर्थिक नीति तथा भूमंडलीकरण की अर्थनीति को लाया। तब वामपंथियों ने भी संसदीय राजनीति में हिस्सेदारी और पूंजीवाद के प्रति अपने प्रेम के कारण इसका खुलकर विरोध नहीं किया था। लेकिन वही आर्थिक नीति आज पूरे भारत में अपना रंग दिखा रही है और फासीवादी शक्तियों को लगातार मजबूत कर रही है। न्यू लिबरल पॉलिसी आने के बाद पूंजीवादी विकास में पहले से समृद्ध ऊंची जातियों तथा बनियों की आर्थिक समृद्धि सबसे अधिक हुई है।आज भारतीय पूंजीवादी लोकतंत्र में पूंजी की पकड़ खुल्लम खुल्ला दिख रही है। 
     मार्क्सवादी हमेशा यह बात कहते रहे हैं कि आर्थिक संबंधों में जो विकास होता है और जिस वर्ग का वर्चस्व होता है, राजनीति और सामाजिक संबंधों में भी उसी का वर्चस्व कायम होता है। भारतीय आर्थिक सामाजिक विकास ने इस तथ्य को बड़ी ही गहराई से साबित किया है। भारत के पिछले 60 सालों की राजनीति ने मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र को एक बार फिर से स्थापित किया है। आजादी के बाद जमींदारी उन्मूलन का सबसे ज्यादा फायदा ऊंची जाति के खेतिहर आबादी के मध्यवर्गीय तथा धनी किसानों के साथ-साथ बड़े पैमाने पर कुर्मी, कोईरी तथा यादव जैसे पिछड़ी जातियों के धनी व मध्यवर्गीय किसानों को मिला। जिस कांग्रेस में ऊंची जाति का वर्चस्व था उसे चुनौती देते हुए कम्युनिस्ट पार्टियों तथा समाजवादियों के नेतृत्व में पिछड़ी जातियों ने आर्थिक समृद्धि प्राप्त करने के बाद संघर्ष शुरू किया। यह वर्ग भारतीय राजनीति में सत्ता के लिए दस्तक दिया और 70 के दशक के बाद बीसवीं सदी के अंत होते-होते उत्तर भारत में ही नहीं पूरे भारत  की राजनीति पर है यह छा गया। लेकिन इसी बीच खेती का विकास दर काफी पीछे जाने लगा, खेती और समाजिक आर्थिक तौर पर पिछड़े लोगों को मंडल कमीशन  के लागू होने के बाद रोजगार तथा नौकरशाही में जगह तो मिली लेकिन इस बीच निजीकरण के कारण जो पूंजीवाद का भयंकर फैलाव हुआ उसमें ऊंची जाति के धन को तथा बनिया जाति का पूरी अर्थव्यवस्था पर वर्चस्व हो गया धीरे-धीरे राजनीति पर उनकी पूंजी अपना वर्चस्व कायम करने लगा यहीं से भाजपा का उदय शुरू होता है क्योंकि नंगे पन के साथ यही पार्टी ऊंची जाति तथा पूंजी के मालिकों की सेवा कर सकती थी। 
 90 के बाद 21वीं सदी में जो विकास हुआ उसमें पहले से शिक्षा तथा पूंजी के मालिक बने व्यापारी वर्ग यानी बनिया तथा ऊंची जाति के शहरी मध्यवर्ग ने वर्चस्व हासिल कर लिया और आज चारों तरफ जो पूंजी का वर्चस्व है इसमें इनकी बड़ी भागीदारी है।  सामाजिक न्याय का नारा देने वाली पार्टियां भी पूंजी के लिए ऐसे ही धनी ऊंची जाति के सामाजिक तबके पर निर्भर हैं। इसलिए आज की तारीख में पूंजी के खिलाफ लड़ाई के बगैर सत्ता में हिस्सेदारी के लिए सामाजिक न्याय और आरक्षण की बात करने वाले लोग अपने को भुलावा में रख रहे हैं। आज की सामाजिक न्याय की लड़ाई  पूंजी के खिलाफ मजदूरों तथा किसानों की व्यापक आबादी के वर्गीय आंदोलन के बगैर नहीं लड़ी जा सकता है, क्योंकि यह पूंजीवादी लोकतंत्र गहरे संकट से घिरा है और अपने मुनाफा की दर को बनाए रखने के लिए लगातार छोटी पूंजी और छोटे किसानों की संपत्ति का हरण कर रही है।यह बड़े पैमाने पर लोगों को अनिश्चित जीवन जीने के लिए मजदूर बनाकर चौक चौराहे और इस शहर से उस शहर में काम के लिए भटकने के लिए बाध्य कर रही है।आज जो भी सामाजिक न्याय  तथा व्यवस्था परिवर्तन की बात करते हैं, उन्हें इन वर्गों को संगठित करना होगा। चुनावी हिस्सेदारी से अब अधिक कुछ मिलने को नहीं है सत्ता पर वर्चस्व के कारण हर हाल में भारतीय राजनीति व आर्थिक व्यवस्था में ऊंची जाति व बनिए तथा नव धनाढ्य पिछड़ी जातियों को जगह मिल जाएगी, लेकिन व्यापक आबादी के लिए तो वर्ग संघर्ष ही एकमात्र रास्ता बचा है। वर्ग संघर्ष के द्वारा जब तक तमाम उत्पादन के साधनों का सामाजिकरण नहीं किया जाएगा, राज्य के अधीन नहीं लाया जाएगा तब तक सामाजिक न्याय की कल्पना नहीं की जा सकती है। पूंजी के खिलाफ इस लड़ाई के बगैर जो भी सामाजिक न्याय की बात करते हैं वे एक तरह से इन धनिकों के सामने कटोरा लेकर भीख मांगने के स्तर तक जा पहुंचे हैं।


नरेन्द्र कुमार