पुकारता रहा बे-आसरा यतीम लहू 


कहीं नहीं है कहीं भी नहीं लहू का सुराग़ 


न दस्त-ओ-नाख़ुन-ए-क़ातिल न आस्तीं पे निशाँ 


न सुर्ख़ी-ए-लब-ए-खंजर न रंग-ए-नोक-ए-सिनाँ 


न ख़ाक पर कोई धब्बा न बाम पर कोई दाग़ 


कहीं नहीं है कहीं भी नहीं लहू का सुराग़ 


न सर्फ़-ए-ख़िदमत-ए-शाहाँ कि ख़ूँ-बहा देते 


न दीं की नज़्र कि बैआना-ए-जज़ा देते 


न रज़्म-गाह में बरसा कि मो'तबर होता 


किसी अलम पे रक़म हो के मुश्तहर होता 


पुकारता रहा बे-आसरा यतीम लहू 


किसी को बहर-ए-समाअत न वक़्त था न दिमाग़ 


न मुद्दई न शहादत हिसाब पाक हुआ 


ये ख़ून-ए-ख़ाक-नशीनाँ था रिज़्क़-ए-ख़ाक हुआ 


-- फ़ैज़ अहमद फ़ैज़


(दिल्ली में सत्ता-प्रायोजित हिंसा के शिकार लोगों को समर्पित)