'फूलों की घाटी' की सुषमा !

 


वैसे तो समूचा उत्तराखंड प्रकृति की नैसर्गिक सुंदरता से भरा हुआ है, लेकिन उसमें भी धरती का स्वर्ग कहे जाने वाले गढ़वाल के फूलों की घाटी का सौंदर्य कुछ अलग ही है। न और कहीं इतने रंग-विरंगे फूल हैं और न ऐसे पारदर्शी जलस्रोत। इस संबंध में कल एक बड़ी खूबसूरत लोककथा पढ़ने को मिली। कथा काल्पनिक सही, उसके पीछे छुपी भावनाएं बेहद सच्ची और मर्मस्पर्शी हैं। कथा के अनुसार हिमालय के इस बर्फ से ढंके क्षेत्र में कभी एक वृद्ध ऋषि रहते थे। उनका सारा समय तपस्या में बीतता था। धीरे-धीरे बर्फ के एकरस दृश्य से वे ऊबने लगे। अकेले तो वे थे ही। इतने अकेले कि कभी घबड़ाकर चीखते तो उनकी आवाज पर्वतों से टकराकर लौट आती। एक बार उन्होंने ईश्वर से अपनी उदासी का अंत करने को कहा। अगले ही पल बर्फ सी धवल एक छोटी बालिका उनके सामने उपस्थित थी। वात्सल्य से भरे ऋषि ने उसे गोद में उठा लिया। परिचय पूछने पर बच्ची ने उन्हें बताया - बाबा, नीचे की घाटी से मेरी मां प्रकृति मुझे यह कहकर भेजा है कि मैं आप उदास ऋषि के चारों तरफ इतनी खुशियां बिखेर दूं कि कभी किसी को भी हिमालय में उदासी न घेरे। मेरा नाम सुषमा है और मैं हमेशा आपके साथ रहूंगी।'



ऋषि रोज बच्ची का हाथ थामे हर रोज बर्फीले पर्वतों की सैर पर निकल जाते। उसे कहानियां सुनाते। हंसने वाली किसी कथा पर जब वह खिलखिलाकर हंसती तो हर तरफ रंग-बिरंगे फूल खिल जाते। कुछ ही दिनों में बच्ची की हंसी से जब घाटी फूलों से भर गई तो ऋषि ने कहा - 'यह है फूलों की घाटी। इस धरती का स्वर्ग।' एक बार पर्वत पर पैर फिसलने के कारण बच्ची रोने लगी तो ऋषि ने देखा कि जहां-जहां उसके आंसू गिरे थे, वहां-वहां जलधाराएं बह रही हैं। निर्झर फूट पड़े हैं। ऋषि तृप्त हो गए घाटी का सौंदर्य देखकर।


बहुत वर्षों बाद नीचे की घाटियों और मैदान के लोगों को इस नए-नवेले सौंदर्य की भनक मिली तो वे रास्ता खोज खोजकर ऊपर जाने लगे। मार्ग की कठिनाई देखकर उन्होंने हरी-भरी धरती पर कुदाल चलवाई। पहाड़ काटे। कभी तो धरती अपने सीने पर यह प्रहार सह लेती, कभी गुस्सा करती तो पहाड़ टूटने लग जाते। जैसे-जैसे इस घाटी में नीचे के लोगों की आवाजाही बढ़ती गई, ऋषि बालिका को लेकर उससे ऊंची चोटियों की ओर बढ़ने लगे। वे दोनों जहां जाते, सूखे पर्वत हरियाली, फूलों और निर्झरों से भर जाते। ऋषि ने सुषमा के साथ धीरे-धीरे हिमालय के उस भाग को स्वर्ग-सा सुंदर बना दिया। आज ऋषि नहीं है, मगर हिमालय के झरनों, जलस्रोतों, हरे-भरे मैदानों और फूलों की घाटी के बीच मासूम सुषमा की उपस्थिति आज भी महसूस की जा सकती है।


 ध्रुव गुप्त



लेखक  सेवा निवृत आई पी एस अधिकारी है