पराजय की सिसकियाँ

 


मनुष्य,गरीब,स्त्रियाँ और बच्चें
राष्ट्र की आवश्यकता नहीं रहे,इस खंडकाल में
राष्ट्राध्यक्षों की कृपाएँ बनी रहती हैं,जिनकी गूँज
मीडिया के कार्यक्रमों में सहायक होती है,जिसके एवज़ में 
सरकारी विज्ञापन मिलते हैं,सरकार चलाने वालों के
विज्ञापन मिलते हैं और इस तरह चैनलों और अख़बारों का
गुज़ारा होते रहता है,दलाल,भांड़ और मिरासियों के
मसखरेपन पर राष्ट्र टिका रहता है


राष्ट्र,जनगनमन अधिनायक नहीं रहा,वह एक ईकाई
बन गया,जैसे हर प्रांत में फैली हुई उद्योगों की इकाइयाँ हैं
जहाँ,मैनेजिंग डायरेक्टर के आदेश के अनुसार चलती हैं ईकाइयां
जहाँ आदेश आते ही तुरंत पालन किए जाते हैं,जैसे
हत्याओं के,बलात्कार के,ग़बन के,आचारों के,विचारों के
महानताओं के,नीचताओं के,आदर्शों की नयी दिशाओं के


आपने कभी कुछ पढ़ा हो,सुना हो,जाना हो,देखा हो
कई बार बड़े-बुज़ुर्गों से कहानियाँ भी सुनी होगी,जिसमें
एक राजा वेश बदल कर जनता की गुरबतों की खबर लेता था
कभी सुना होगा कि कौरवों की सभा में सारे राजाओं की कोशिशों के
बावजूद किसी द्रोपदी की लज्जा बनी रही
अब सब भूल जाने का समय है
अब तो स्त्री,पैदा होते ही द्रोपदी हो जाती है,और कोई कौरव
बर्बर,निर्लज्ज,अमानुष जीत जाता है,और वह स्त्री बनने की पीड़ा
समझने के पहले न्याय व्यवस्था का विषय हो जाती है


यह समय जीत लिया गया है,आतताईयों द्वारा
वे गर्वित हैं,रणभेरी बजाते हुए,चारों और जयकार है
यह राष्ट्रकृपा का समय है,कृपालु पूरी तैय्यारी से हैं


लेकिन पराजय की सिसकियाँ रोने की तैय्यारी में हैं
वह बुक्का फाड़ कर रोने ही वाली है,बस ॥


प्रमोद बेड़िया