पाकिस्तान जिंदाबाद नारा लगाना क्या देशद्रोह है ?


क्यों हमारी देशभक्ति देश के लिए प्रेम से ज्यादा किसी दूसरे से दुश्मनी पर तय होने लगी है?
जो चीख-चीखकर अपने देशप्रेम का इज़हार करते हैं और किसी और के प्रति दुश्मनी को देश प्रेम का आधार मानते हैं, उन्हें ज़रा रुक कर सोचना चाहिए


ब्लेस पास्कल को आम तौर पर महान गणितज्ञ और वैज्ञानिक के रूप में ही जाना जाता है. लेकिन पास्कल एक बड़े आध्यात्मिक चिंतक और लेखक भी थे. उनके धर्म संबंधी लेखन को फ़्रांसीसी भाषा और साहित्य की मूल्यवान धरोहर माना जाता है. पास्कल ने एक जगह लिखा है, ‘मुझे सबसे ज्यादा मूर्खतापूर्ण बात यह लगती है कि किसी आदमी को सिर्फ़ इस आधार पर मुझे मारने का अधिकार मिल जाता है कि वह नदी के उस पार पैदा हुआ है और उसके शासक की मेरे शासक से दुश्मनी है, जबकि मेरी उससे कोई दुश्मनी नहीं है.
’हम कहां पैदा हुए. किस परिवार, धर्म, देश और इलाक़े में पैदा हुए, इस पर हमारा कोई बस नहीं था. हमारी इच्छा से यह सब तय नहीं हुआ था. ऐसे में यह स्वाभाविक माना जा सकता है कि हम अपने परिवार, धर्म, इलाक़े, देश और अपनी भाषा-संस्कृति से प्रेम करें. लेकिन यह सचमुच समझ में न आने वाली बात है कि हम क्यों एक ऐसे व्यक्ति से घृणा करें जिसका अपराध सिर्फ़ यह है कि वह हमसे पांच सौ या हज़ार मील दूर पैदा हुआ है या किसी दूसरी भाषा संस्कृति और धर्म के बीच पला बढ़ा है. आख़िरकार कोई भी भगवान को दरख्वास्त देकर तो पैदा नहीं होता कि हमें भारत में या पाकिस्तान में या अमेरिका या ईरान में पैदा करो. हम किसी ऐसे आदमी से दुश्मनी और घृणा का रिश्ता कैसे बना सकते हैं जिसे हमने कभी देखा भी नहीं, जिसका नाम हम नहीं जानते, जिसने कभी न हमारा भला किया, न बुरा किया. लेकिन यह बेतुकी बात हमारे जीवन का हिस्सा बन गई है.
अगर देशभक्ति का अर्थ अपने देश से प्रेम करना हो तो यह समझ में आता है. यह स्वाभाविक भी है. लेकिन अक्सर हमारी देशभक्ति किसी अन्य से दुश्मनी पर आधारित ज्यादा होती है. मसलन इस वक्त भारत और पाकिस्तान में देशभक्ति का आधार पड़ोसी से दुश्मनी है, और चूंकि दोनों देश में प्रचलित मुख्य धर्म अलग हैं इसलिए उन धर्मों से नफ़रत भी उसका सहज प्रतिफल है.


बीसवीं शताब्दी के महात्मा गांधी के भारत आने के बाद महात्मा गांधी और रवींद्रनाथ टैगोर के बीच राष्ट्रवाद को लेकर काफी बहस हुई थी. टैगोर ने राजनैतिक आंदोलन में संकीर्ण राष्ट्रवाद को लेकर अपनी फ़िक्र ज़ाहिर की थी और गांधी जी ने भी यह विशेष ध्यान दिया कि भले ही स्वतंत्रता आंदोलन अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ था लेकिन उसमें भारत के प्रति प्रेम रहे, अंग्रेज़ों के प्रति या किसी के भी प्रति घृणा की उसमें जगह न हो.


जब हम किसी देश को अपना दुश्मन मानते हैं तो उसके हर नागरिक को अपना दुश्मन मान लेते हैं, जबकि उन नागरिकों को हम न चेहरे से जानते हैं, न नाम जानते हैं, न उनसे कभी हमारा कोई लेना-देना होता है


जब हम किसी देश को अपना दुश्मन मानते हैं तो उसके हर नागरिक को अपना दुश्मन मान लेते हैं, जबकि उन नागरिकों को हम न चेहरे से जानते हैं, न नाम जानते हैं, न उनसे कभी हमारा कोई लेना-देना होता है. वैसे ही उस देश के नागरिक भी हमें बिना जाने-पहचाने दुश्मन मान लेते हैं. यह ऐसा बुद्धिहीन सिलसिला है जिसके बेतुकेपन पर हमारा कभी ध्यान नहीं जाता.


अपनी मातृभूमि से प्रेम तो स्वाभाविक बात है और शायद तबसे चला आ रहा है जब से मानव संस्कृति विकसित हुई होगी. लेकिन जिस तरह की राष्ट्रभक्ति की चर्चा आजकल होती है वह पिछली दो चार सदियों में आधुनिक राष्ट्र राज्य यानी नेशन स्टेट की अवधारणा से जुड़ी है जो देश की राजनैतिक सीमाओं और राजनैतिक तंत्र बल्कि अक्सर राज करने वालों तक के प्रति वफ़ादारी तक जाती है. इसलिए कुछ अनुदार व्यवस्थाओं में सरकार चलाने वालों की आलोचना को भी देशद्रोह माना जाता है.


मुश्किल यह है कि नेशन स्टेट भी कोई कोई पुख़्ता व्यवस्था नहीं है, वे बनते बिगड़ते रहते हैं. अफ्रीका के कई देश देखेंगे तो पता चलेगा कि कई देश ऐसे बने हैं कि अंग्रेज़ों ने नक़्शे पर स्कूल रख कर सीधी सीधी लाइनें खींच दीं और देश बना दिए. पूर्वी यूरोप के कई देश बीसवीं सदी में ही इतनी बार बने बिगड़े कि याद करना मुश्किल है. भारत और पाकिस्तान ही 70 साल पहले एक देश थे. सर सिरिल रेडक्लिफ ने नक़्शे पर लकीरें खींच कर यह तय कर दिया कि कौन किसका दुश्मन होगा. सर रेडक्लिफ ने ही जो लकीरें खींची उनमें तमाम गड़बड़ियां हैं, लेकिन उनसे दोस्ती-दुश्मनी की जो लकीरें खिंच गईं उन्होंने न जाने कितनी ज़िंदगियां बरबाद कर डालीं.


सबसे अजीब स्थिति तो सेना की हुई. जो सैनिक एक साथ लड़े थे, एक साथ रहते थे, एक मेस में खाना खाते थे, वे एक दिन दुश्मन सेनाओं में हो गए और एक दूसरे से लड़ने लगे. मंटो की कुछ कहानियां ऐसे सैनिकों के बारे में हैं जो कभी साथी और मित्र थे और अब एक दूसरे पर गोलियां चला रहे हैं. इसीलिए सेनाओं और सैनिकों में काफी हद तक यह समझ होती है कि जो सामने है वह भी उनका हमपेशा है जो अपना कर्तव्य निभा रहा है.


हम अपने माता-पिता या और किसी से भी प्रेम करते हैं तो उनके सुख और ख़ुशी के लिए चुपचाप कोशिश करते हैं. सड़कों पर अपने प्रेम के नारे लगाते नहीं घूमते. सच्चे देशप्रेमी भी ऐसे ही होते हैं. इसलिए जो चीख-चीखकर अपने देशप्रेम का इज़हार करते हैं और किसी और के प्रति दुश्मनी को देश प्रेम का आधार मानते हैं, उन्हें ज़रा रुक कर सोचना चाहिए.


राजेन्द्र धोड़पकर {सत्याग्रह }