निडर और निष्पक्ष पत्रकारिता


इस फोटो में पूर्व सांसद बृन्दा करात के दाहिने जो खड़े हुए हैं वे #संतोष_यादव हैं। वे हाल ही में एनआइए कोर्ट से बरी हुए हैं। उन्हें नक्सलवादी होने के आरोप में तब के भाजपा राज में गिरफ्तार किया गया था। जेल में उन्हें अमानवीय यातनायें दी गई थी, ताकि वे पुलिस द्वारा लगाए गए आरोपों को स्वीकार कर लें। वे तब #नवभारत के पत्रकार थे, लेकिन इस दैनिक समाचार पत्र ने उन्हें अपना ग्रामीण संवाददाता ही मानने से इंकार कर दिया।
जेल के अंदर वे बहादुरी से लड़े। जमानत पर बाहर आने पर उन पर चौबीस घंटों का पुलिस पहरा बिठा दिया गया। उनकी हर गतिविधि, उनसे मिलने-जुलने वाले हर व्यक्ति पर नज़र रखी जाती थी। यदि उन्हें गांव से बाहर जाने की जरूरत भी पड़ती थी, तो पुलिस की अनुमति के बगैर नहीं जा सकते थे। उन्हें बताना पड़ता था कि वे ठीक-ठीक कब तक लौटेंगे। जेल से बाहर उनकी जिंदगी जेल से भी बदतर और अमानवीय थी।
बृंदा करात से मुलाक़ात में उन्होंने बताया कि उन्होंने कई बार आत्महत्या करने की सोची, लेकिन ऐसा सिर्फ इसलिए नहीं कर पाए कि उन्हें अहसास था कि और भी आदिवासी हैं, जिनकी जिंदगी उनसे भी ज्यादा बदतर है। आदिवासियों को इस स्थिति से निकालने में वे कुछ भूमिका अदा कर सकते हैं।
बरी होने के बाद उन्होंने आज़ादी और उन्मुक्त हवा का अहसास किया है । उन्होंने फिर ठाना कि आदिवासियों के लिए आवाज़ उठाना है, अपनी कलम चलाना है। आज वे फिर गांव, खेती-किसानी, आदिवासी समाज, मानवाधिकार, शोषण की समस्याओं पर लिख रहे हैं, पहले से दुगुने उत्साह से।
वे व्यापक और देशव्यापी आदिवासी आंदोलन से जुड़ना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि प्राकृतिक संसाधनों की बस्तर में जो लूट हो रही है, उसके खिलाफ और प्रखरता से आवाज़ बुलंद की जाएं।
कारपोरेट और हिंदुत्व के नापाक गंठजोड़ के इस पीत से काली हुयी पत्रकारिता के दौर में संतोष यादव जैसे समर्पित और निडर पत्रकार रोशनी के हरकारे हैं और खुशी की बात है कि अकेले नहीं हैं - उनके जैसे अनेक हैं।
(रायपुर से संजय पराते Sanjay Parate)