मीडिया की छह साल की कीमियागिरी का नतीजा है युवाओं में नफरत और तीस जनवरी का गोलीकांड…

पहले तो चार साल तक एक सी ग्रेड एक्टिविस्ट को महात्मा गांधी बना कर पेश किया जाता रहा.. जिसके चलते सारे भ्रष्ट अधिकारी और नेता सड़कों पर जाजम बिछा कर आम जनता, सरकारी कर्मचारियों और दुकानदारों को ईमानदार बनने की कसमें दिलाते हुए मीडिया में जगह पाते रहे.. फिर राष्ट्रवाद ने अंगड़ाई ली और अन्ना हजारे को उनके गांव का टिकट कटवा कर भ्रष्टाचार मिटाओ, विदेशों में धरी काली कमाई लाओ टाइप आंदोलन चला कर देश की सत्ता हासिल कर ली… तब तक काग़ज़ी हो या चैनल, दोनों मीडिया के मालिक बंधुआ मजदूर बन चुके थे और उनके संपादक और उनकी टीम का काम.. वतन की आबरू खतरे में है, गाने भर का रह गया..


विदेशों में बन रहा भारतीय मीडिया का मजाक, Indian media is being mocked abroad


देश में बढ़ती जा रही बेरोजगारी, बिगड़ते आर्थिक हालात, चौपट हो रही बैंकिंग व्यवस्था, नष्ट हो रहे छोटे बड़े कारोबार, निजीकरण के नाम पर एक मजबूत नींव पर खड़े सरकारी उद्योग तंत्र की नीलामी, विदेशों में बन रहा मजाक- इन सबके बावजूद मीडिया का अहा रूपम अहा गायन, जो हारमोनियम और तबले के साथ शुरू हुआ था, अब रणभेरी बन देश भर में गूंजने लगा..


शाहीन बाग की औरतों ने मीडिया के सब किए कराए पर पानी फेर दिया


सरकार अपने दूसरे दौर में अपनी जन्म जन्मांतर की सारी इच्छाएं पूरी करने को आमादा हो उठी.. ड्रम और नफीरी बजाने को मीडिया पेशगी ले ही चुका था..लेकिन शाहीन बाग की औरतों ने सब किए कराए पर पानी फेर दिया..जैसे जैसे शाहीन बाग की जड़ और शहरों में फैलनी शुरू हुई, मीडिया बौखला गया क्योंकि पेशगी जो ले ली थी..तो एक से एक जंग खाए मुद्दे निकाले जाने लगे..सरकारी प्रवक्ता अपने कानून को तार्किक बनाने के लिए गांधी नेहरु युग में पहुंच गए, और उनके कहे को आधा अधूरा या अपने काम के वाक्य बांचने लगे और मीडिया मंत्रमुग्ध हो निहार रहा..उसे यह कानून भारत छोड़ो आंदोलन जैसा लगा..


जब इससे भी काम नहीं चला तो कश्मीरी पंडितों का मामला उठा दिया..इसकी रामधुन दिल्ली से लेकर सुदूर मुजफ्फरपुर तक गूंजी.. लेकिन यह मुद्दा भी नहीं खिंचा तो दिल्ली के चुनाव सामने पड़ गए..खुद के पास कुछ गिनाने को था नहीं तो इस बार सरकारी नेताओं ने मीडिया को झंकार बना खुद गाना शुरू कर दिया सत्तर साल पुरानी ट्यून पर हिंदुस्तान हिंदुस्तान – पाकिस्तान पाकिस्तान..




तो मीडिया और सरकार का यह मिल जुला राष्ट्रीय अभियान अब जम के गुल खिला रहा है और तीस जनवरी बापू की पुण्यतिथि (Thirty January Bapu’s death anniversary ) के साथ साथ वो मंच बना दी गई है जहां कोई गोडसे हर साल किसी गांधी को गोली जरूर मरेगा क्योंकि राष्ट्रवाद की देशभक्ति की दैनिक योजना में मोहनदास करमचंद गांधी सबसे बड़ा रोड़ा जो है..


राजीव मित्तल