आज 20 फ़रवरी है। 2015 को आज ही के दिन गोविंद पानसरे की हत्या कर दी गयी थी। ऐसे लोग मारे नहीं जा सकते, कभी मरते नहीं हैं फिर भी यह कहना ही चाहिए कि मारने वाले विवेक विरोधी थे, साम्प्रदायिक थे। मारने वालों का तर्क, वैज्ञानिकता से सख़्त विरोध था। उन्हें लंबे मनुष्यविरोधी प्रशिक्षण ने ऐसे मूर्ख हत्यारे में बदल दिया था जो यह समझने लगते हैं कि गोली मारने से विचार भी नहीं रहेगा। इसे ही मूर्ख हिंसा कहते हैं। वैसे हिंसा को सदैव मूर्ख ही कहा जाए तो ग़लत न होगा।
गोविंद पानसरे कम्युनिस्ट थे। लेखक और विचारक थे। भरोसेमंद वक्ता थे। उनकी किताब "शिवाजी कौन था?" शिवाजी को प्रेम करने वाली जनता की किताब है। गोविंद पानसरे शिक्षक थे। जन शिक्षक। सच बोलते थे और मरते दम तक निर्भीक थे। उन्हें मारा ही जा सका । विरोधी विचारों वाले लोगों ने न कभी उनका अनादर किया न बड़े से बड़ा दुश्मन उन्हें कभी डरा सका। वे ऐसे शांति के योद्धा थे जिनसे केवल कलह प्रेमी डरते हैं। डरते हैं और हत्या करके भी हार जाते हैं।
विनीत तिवारी बताते हैं, "गोविंद पानसरे जिस स्कूल में पढ़े, उस में पहले चपरासी का काम किया, फिर वहीं शिक्षक भी हुए और फिर उसी स्कूल के निदेशक मंडल सदस्य भी। उनका लेखन इतना विपुल था कि कश्मीर से लेकर इतिहास, वर्तमान, समाजवाद आदि के सैद्धांतिक और व्यवहारिक मुद्दों पर युवाओं के साथ एक एक सप्ताह के अध्ययन शिविर लगाया करते थे।"
कम्युनिस्ट होना ऐसा होता है कि जो वास्तव में कम्युनिस्ट होता है वह भी कम्युनिस्ट ही होना चाहता है। भारत आज ऐसे विचित्र राजनीतिक दौर से गुज़र रहा है जिसमें कम्युनिस्ट को देशद्रोही और टुकड़े टुकड़े गैंग का सदस्य कहा जाता है। भोले भाले लोग गुमराह होते हैं। कहने वाले खुलकर नहीं कहते कि हम कम्युनिस्टों को देशद्रोही कहकर ख़त्म करना चाहते हैं। बहादुरी तो इसी में होनी थी कि कहा जाता हम कम्युनिस्टों को ख़त्म करना चाहते हैं।
मैं कम्युनिस्ट नहीं हूँ। शिक्षक हूँ। लेकिन मुझे कम्युनिस्ट प्रिय हैं। अगर हो सकूं तो पहले बुद्धिस्ट फिर कम्युनिस्ट होना चाहूँगा। लेकिन मैं समझता हूँ कि आज का भारत जो ऊपर ही ऊपर से छद्म देशभक्तों के लिए स्वर्णयुग में पहुंच गया दिखता है वह दरअसल बुद्धिस्टों, गांधीवादियों, कम्युनिस्टों और अम्बेडकरवादियों को बहुत प्यार करता है।
गोविंद पानसरे कम्युनिस्ट थे। उन्हें गोली मार दी गयी। भगत सिंह कम्युनिस्ट थे। वे चाहते थे उन्हें गोली मारी जाए। लेकिन अंग्रेज़ों ने उन्हें फाँसी दी। भारत में यह समझना देख पाना मुश्किल नहीं है कि जब कम्युनिस्ट अपनी पसंद की मौत भी चाहते हैं तो क्यों उन्हें या तो कलंकित करके या फिर झूठ से छुपकर मारा जाता है। लेकिन कम्युनिस्ट कभी मारे नहीं जा सके। वे सदैव कम रहे लेकिन हमेशा और हर जगह रहे।
भारत में कम्युनिस्ट ख़ून और पसीने के नमक की तरह हैं।
गोविंद पानसरे को सलाम! श्रद्धांजलि !
Shashi bhushan