जिस आग पर आज पानी सहसा उबलने लगा है ।

फिर धीरे-धीरे यहाँ का मौसम बदलने लगा है ,


वातावरण सो रहा था अब आँख मलने लगा है ।


पिछले सफ़र की न पूछो , टूटा हुआ एक रथ है ,


जो रुक गया था कहीं पर , फिर साथ चलने लगा है ।


हमको पता भी नहीं था , वो आग ठंडी पड़ी थी ,


जिस आग पर आज पानी सहसा उबलने लगा है ।


जो आदमी मर चुके थे , मौजूद हैं इस सभा में ,


हर एक सच कल्पना से आगे निकलने लगा है ।


ये घोषणा हो चुकी है , मेला लगेगा यहाँ पर ,


हर आदमी घर पहुँचकर , कपड़े बदलने लगा है ।


बातें बहुत हो रही हैं,मेरे-तुम्हारे विषय में ,


जो रास्ते में खड़ा था पर्वत पिघलने लगा है ।


– दुष्यन्त कुमार ( साभार:’ साये में धूप ‘ )