झारखण्ड की संस्कृति एंव सभ्यता


झारखण्ड की संस्कृति एंव सभ्यता : झारखण्ड क्षेत्र में बहूतायात जनसंख्या जनजातीय थी। ये आदिम लोग थे और कबिलाओं में निवास करते थे। इनकी संस्कृति आदिम संस्कृति रही है। कबिलाई जनसंख्या के सास्कृतिक विकास को हम तीन चरणों में बाँट सकते हैं। आदिम कबिले की आदिम जनजाति संस्कृति। दूसरे हिन्दु प्रभावित आदिम संस्कृति एंव तृतीय ईशाई प्रभावित आदिम संस्कृति। कबिलावाची जनजाति संस्कृति यानि कबिलाई जनजाति संस्कृति दो धाराओं में मूलत: विभक्त है। द्रविड़ संस्कृति एवं आस्ट्रीक संस्कृति। झारखण्ड क्षेत्र में प्राचीन युग में अति आदिम, (प्रमीटीव) जनजातियों के अपने स्थाई रूप से बसने के कारण द्रविड़ संस्कृति एवं आस्ट्री् संस्कृति एक दूसरे को किसी न किसी रूप में प्रभावित किया है। आदिम जनजाति अपने परम्परागत रीति-रिवाज से शासित होते है। इनकी अपनी प्रथाएँ है यानि चलन है जिनसे ये प्रशासित होते है। झारखण्ड़ के जनजाति मूर्तिपूजक नहीं, प्रकृति पूजक थे। ये हिन्दु धर्म के धारक या वाहक नहीं थे। सरना अथवा जाहिरा धर्म को मानते थे। यहाँ निवास करनेवाली जातियों की संस्कृति वैदिक नहीं थी। इनकी संस्कृति थी, कुड़मी-संस्कृति, संथाल-संस्कृति, खड़िया, उराँव, मुंड़ा संस्कृति आदि।
कालान्तर में हिन्दू विधि द्वारा प्रशासित आर्य यानि हिन्दू संस्कृति के लोगों का प्रवेश झारखण्ड़ में हुआ। अधिक विकसित क्षेत्र के लोग कम विकसित क्षेत्र के लोगों के ऊपर हावी होने का प्रयास करते हैं। हिन्दू-संस्कृति को झारखण्ड़ क्षेत्र में व्यापक प्रचार-प्रसार के माध्यम से लादा या थोपा गया। गाँव-गाँव में रामायण, महाभारत की कथाओं का प्रचार-प्रसार ब्राह्मणों के द्वारा किया गया। द्रविड़ एवं आंस्ट्रिक संस्कृति बाहर के हिन्दू-संस्कृति द्वारा प्रभावित हुआ। पर साथ ही हिन्दू धर्म भी इन संस्कृतियों से प्रभावित हुआ। केला, सुपाड़ी, नारियल, ईंख एवं सिंदूर मूलत: द्रविड़ संस्कृति की नेवेद्य है। इसे हिन्दू संस्कृति ने अपनाया है।
झारखण्ड़ के विषय में, वहाँ की जातीय परिस्थिति को समझने के पहले जनजाति की क्या विशेषताएँ होती है, इसपर थोड़ी चर्चा करना आवश्यक है एवं महत्वपूर्ण है। क्योंकि झारखण्ड़ आन्दोलन का मूल वहाँ की जातीय परिस्थिति एवं संस्कृति है। झारखण्ड़ी राष्ट्रीयता को समझने के लिए वहाँ निवास करने वाली जनजातियों की विशेषताओं को जान लेना जरूरी होगा।
जनजाति का निर्माण कई गोंष्ठियों के संकलन से होता है। एक गोष्ठी एक परिवार ही रहा है। जनसंख्या की वृद्धि के चलते परिवारों की संख्या में वृद्धि होती है। परिवार ही जनजाति समाज की मौलिक ईकाई है। जनजाति परिवार या गोष्ठी का ही एक विस्तृत रूप है। जैसे मुंड़ा जनजाति में सोंय, पूर्ति, बोदरा, तिडू, भेंगरा इत्यादि, संथाल जनजाति में हेम्ब्रम, हाँसदा, सोरेन, मरांड़ी, बेसरा इत्यादि। कुड़मी जनजाति में सांखुआर, टिडुआर, मुतरूआर, काडूआर आदि। कुडुक जनजाति में कुजुर, मिंज, खेस, किसपोट्टा, सांखआर, तिग्गा आदि खड़िया जनजाति में बाः, किडो, बिलुंग आदि। हो जनजाति में तुबिद, तियू, लुगुन इत्यादि। इन गोष्ठियों को अंग्रेजी में ट्राइब कहा जाता है, जिसका अर्थ गण या दल है।
जनजाति टोटेमिक होते है। अंग्रेजी शब्द टोटेम का अर्थ है विश्वास। ट्राइब संगठित जनजाति किसी भौतिक पदार्थ, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, फूल-फल, किड़े-मकोड़े, जल-जीव आदि से अपना एक रहस्यमय संबंध होने का दावा करते हैं। वे ही ट्राइव या गोष्ठी नाम से जाने पहचाने जाते हैं। उनपर विश्वास या टोटेम मानते है।
जनजाति टाबू मानते हैं। टाबू (Taboo) का अर्थ धार्मिक विधि या निषेद्य या व्यवहार में नहीं लाने, बध नहीं करने अथवा खाने में व्यवहृत नहीं करने से होता है। जनजाति में प्रत्येक गोष्ठी का एक निषिद्य पदार्थ होता है।
प्रत्येक जनजाति को किसी एक न एक विशिष्ट नाम से जाना जाता है। जैसे कुड़मी, मुंड़ा, उराँव, हो, खड़िया आदि।
जनजाति का एक निश्चित भू-भाग होता है। उनका एक निर्दिष्ट परम्परागत निवास भूमि होती है। किन्तु इस सम्बन्ध में विद्वानों के विचारों में भिन्नता है। डा0 रिचर्ड का मत है कि जनजाति के लिए एक निश्चित स्थाई निवास भूमि होना आवश्यक नहीं है। कई जनजातियाँ घुमक्कड़ जीवन व्यतीत करती है। किन्तु डा0 मजूमदार का मत है कि घुमक्कड़ जनजातियाँ एक निश्चित भू-भाग यानि एक निश्चित भौगोलिक क्षेत्र में ही घुमती है, सभी जगहों पर नहीं। वैसे झारखण्ड़ क्षेत्र में बसने वाली अधिकत्तर जनजातियाँ इस क्षेत्र की स्थाई निवासी हैं। घुमक्कड़ जातियाँ भी इस क्षेत्र से बाहर नहीं निकली।
प्रत्येक जनजाति की अपनी कविलावाची भाषा होती है जिसका प्रयोग उस जनजाति के सभी लोग करते हैं। जनजाति भाषा का हस्तान्तरण प्रमुख रूप से मौखिक रूप से होता है।


राजकिशोर महतो के ब्लॉग से