स्व. जीवनानंद दास (1899-1954) रवीन्द्रनाथ टैगोर के बाद बांग्ला के सबसे जनप्रिय कवियों में एक हैं। बांग्ला के वे पहले कवि हैं जिन्होंने टैगोर की कविता के रूमान और रहस्यवाद को अस्वीकार करने का साहस दिखाया और कविता की एक सर्वथा अलग शैली और काव्यभाषा को जन्म दिया। टैगोर की आलोचना के कारण उनकी कुछ कृतियों - झरा पालक, धूसर पांडुलिपि, बनलता सेन, महापृथिबी, रूपसी बांगला आदि को उनके जीवनकाल में पाठकों की स्वीकार्यता कम ही मिली। पिछली सदी के पांचवे दशक में दुर्घटना में उनकी त्रासद मृत्यु के बाद साहित्य अकादमी पुरस्कार दिए जाने के बाद लोगों का ध्यान उनकी तरफआकृष्ट हुआ और सहसा वे पाठकों के दिल और दिमाग पर छा गये। मृत्यु के बाद उनके घर से सैकड़ों अप्रकाशित कविताएं और 12 अप्रकाशित उपन्यास मिले जो आज बंगला साहित्य की अनमोल धरोहर हैं। जीवनानंद दास की जयंती (17 फरवरी) पर श्रद्धांजलि, उनकी एक कविता के साथ !
सिन्धु की लहरों जैसा सिर्फ़ एक गीत जानता हूं मैं
मैं भूल गया हूं
पृथ्वी और आकाश की और सब भाषाएं
सबके बीच मैंने सिर्फ़ तुम्हें पहचाना है
जाना है तुम्हारा प्यार
जीवन के कोलाहल में सबसे पहले जाकर
मैंने तुम्हें ही पुकारा है
दिन डूबने पर अंधेरे आसमान के सीने पर
जो जगह रह गई है थिर नक्षत्रों के विभोर में
सिन्धु की लहरों के सीने में जो फेन की प्यास है
मनुष्य की वेदना के अंधेरे में
उजाले की मानिन्द जागी रहती है जो आशा
पीले पत्तों के सीनों पर
जाड़े की किसी रात
लगी रहती है मृत्यु की जो मीठी गन्ध
मेरे हृदय में आकर तुम
ठीक उसी तरह से जागी हुई हो !
धरती के शुद्ध पुरोहितों की तरह
उस सुबह के समुद्र का पानी
उस दूर वाले आसमान के सीने पर से
जिस तरह पोंछ रहा है अंधेरा
तुमने भी सीने की सारी पीड़ाएं धो दी हैं
सारे अफ़सोस, सारे कलंक
तुम जगे हुए हो
इसीलिए मैं इस पृथ्वी पर जागने के
आयोजन करता हूं
तुम सो जाओगी जब
तुम्हारे सीने पर मृत्यु बनकर सो जाऊंगा मैं !
(मूल बांग्ला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी)
ध्रुव गुप्त