चिंतन
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यदि कोई मनुष्य अपने लिए एक आदर्श आत्म-छवि और जीवन-आदर्श की कल्पना नहीं कर सकता तो यह उसकी मानवता का अपमान है। अपने लिए आदर्श आत्म-छवि बनाना, अपने लिए जीवन और समाज के आदर्श तय करना और उनपर चालना ही मानव का सब से बड़ा उद्देश्य होता है।
अपनी ही बनाई दुनिया में रहना मानव का सर्वोच्च विशेषाधिकार है। जानवर का अपना जन्म स्थान तो होता है, पर ‘देश’ नहीं होता। क्यों की देश एक काल्पनिक रचाना है। यह केवल जन्म स्थान से नहीं बनाता। जन्म-स्थान तो एक संयोग भर है। मानव को जन्म-स्थान को अपनी चेतना और ऊपर इंगित आत्म-छवी के साथ भावनात्मक सामीप्य से अपना बनाना होता है। यह अपनत्व ही जन्म स्थान को देश बनाता है। अपना बनाने के साथ देश के निर्माण में उसे एक सामूहिक वास्तविकता का रूप भी देना होता है।
यदि मनुष्य ने अपने ‘आत्म’ को प्राप्त नहीं किया है, यदि उसका व्यक्तित्व स्वयं के बनाए किसी मानस-आदर्श के अनुसार उसने स्वयं निर्मित नहीं किया है। तो, उसका सम्पूर्ण सांसारिक वैभव और उसकी अहंकारी सत्ता उसे आंतरिक तुच्छता से नहीं बचा सकती। मनुष्य को अपने सभी तत्वों को गतिशील एकत्व में पिरोकर [स्वयं निर्मित व्यक्तित्व के रूप में] अभिव्यक्त करने में सफल होना पड़ता है। उसे अन्तर्मन में अपने स्वयं के ही एक विचार के रूप में दर्शन करने होते हैं, और बाहरी रूप में अपने आप को उस विचार के अनुरूप अभिव्यक्त करना होता है। जो यह दृढ़ता से और स्पष्ट रूप से करने में सक्षम है, वह एक समर्थ व्यक्तित्व के रूप में उभरता है।
ऊपर के तीनों अनुच्छेदों में अभिव्यक्त विचार रवीन्द्रनाथ टैगोर के लेख “मैन द आर्टिस्ट” में से लिए गए हैं। उद्धरण-चिन्ह नहीं लगाए हैं, क्योंकि ये हूबहू अनुवाद नहीं है।
वर्तमान समय भारतियों के लिए, विशेष कर उपरोक्त रूप में, ‘इंसान’ बनने का समय है। इसी पर इस देश का और इस के नागरिकों का भविष्य निर्भर करता है। हम अपने चारों तरफ भगवा, हरी और लाल भेड़ों के मानसिक रूप से हिंस्र झुंड देखते हैं। वे सब भेड़ें अपने-अपने झुंड के स्वर में ही मिमियाती हैं। ये सामूहिक आक्रामक मिमियाहट कुछ इस अंदाज में की जाती है कि इंसानों को हिंस्र और आक्रामक लगे। ये दहाड़ नहीं है। है तो मिमियाहट, पर झुंड की ताकत के बल पर की जाती है दहाड़ के रूप में।
कोई भेड़ अपने अपनाए हुए झुंड से अलग मिमियाहट नहीं निकाल सकती। ऐसा करते ही उसका स्वयं का झुंड उसपर आक्रमण कर देता है।
अधिकतर सामूहिक मिमियाहटों के स्वर कहीं अंधेरे में भेड़ों के रूप में बैठे भेड़िये तय करते हैं। भेड़ों को उसपर कोई मेहनत नहीं करनी होती। वे बस अंधेरे में बैठे भेड़ियों के स्वर दोहराती रहती हैं। इस प्रकार ये सभी भेड़ें, क्यों कि अपने किसी आदर्श-रूप का स्वयं निर्माण नहीं करती, इस लिए टैगोर के शब्दों में आंतरिक तुच्छता की शिकार रहती हैं। उन्हें अपनी शक्ति केवल झुंड के साथ रहने में लगती है।
इन सभी झुंडों की स्थिति इस वक़्त रेगिस्तान में भटकने जैसी है। इन के भेड़िया नेताओं के पास जो नक्शे हैं वे किसी ऐसी जगह नहीं ले जाते जहां सब बेड़ों को इंसान बनाने की आजादी हो और जो सब के हित में हो। इनके बौद्धिक और राजनैतिक नेता सिर्फ अपने रंग विशेष की सम्पूर्ण सत्ता चाहते हैं।
इस भेड़-चाल से हट कर इंसान बनाने में बहुत बड़ा खतरा यह है, क्यों कि इसके लिए इस रेगिस्तान में अपना रास्ता स्वयं तय करना होता है। अकेले हो जाने का डर ही भेड़ों के झुंडों में चिपकाने वाले गोंद का काम कर रहा है। झुंड में सत्य और नैतिकता का एक, उधार का ही सही, विश्वास बना रहता है। झुंड को छोड़ने पर ये विश्वास स्वयं के चिंतन के आधार पर सृजित करना पड़ता है। इस में एक तो आंतरिक बौद्धिक-डर बाधक होता है, और दूसरा अपने ही झुंड के आक्रमण का डर।
पर हम अपने अंदर झाँके तो इन दोनों तरह के डरों से आज़ाद होने की सामर्थ्य हम में है, सदा होती है। हमें इंसान होने के लिए इसी सामर्थ्य पर विश्वास और इसका उचित उपयोग करना होता है। और हम में से हर एक ऐसा कर सकता है। यह सही है की ऐसा करने में खतरे हैं। झुंडों को छोड़ कर अपना रास्ता तय करने के माध्यम से इंसान बनाने के लक्षण नजर आते ही आक्रमण होंगे, और प्रक्रिया पूरी होने से पहले ही उसे खत्म कर दिया जाएगा। यदि स्वतंत्र हो भी गए, तो अकेले में रास्ता भटक जाने का डर बना रहेगा। इस प्रक्रिया में बहुत भेड़ों का बलिदान होगा। पर सब के इंसान बनाने का और सब के भले का समुचित रास्ता भी इसी बलिदान के आधार पर निकलेगा।
टैगोर के शब्दों में “हम [अस्तित्व के] संगीत सृजक हैं, हम सपनों के निर्माता हैं”। भारतीयों को इस वक़्त अपना अस्तिव, अपना संगीत और अपने सपने स्वयं बनाने की जरूरत है। इसी प्रयत्न में सब के लिए मधुर संगीत की धुन बन पाएगी। भेड़ संगीत तो सदा कर्ण-कटु ‘आत्म-नाशक’ जंजीरें ही रहेगा।
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@ Rohit Dhankar रोहित धनकर
* 14 फरवरी , 2020