गुलाबों वाला दिन !


बसंत की आहट के साथ कल से पश्चिम से आयातित 'वैलेंटाइन सप्ताह' की शुरुआत हो रही है ! हमारे देश में भी कभी बसंत उत्सव की लंबी परंपरा रही थी जिसमें समाज अपने युवाओं को प्रेम की अभिव्यक्ति का अवसर देता था। अभी वैलेंटाइन सप्ताह का विरोध इस आधार पर होने लगा है कि प्रेम की अभिव्यक्ति हमारी संस्कृति का हिस्सा नहीं है। ऐसा तर्क प्रेम से वंचित अभागे लोग ही दे सकते हैं। जिस संस्कृति में प्रेम नहीं उसे अपसंस्कृति कहा जाना चाहिए। प्रेम का यह मौका विदेशी ही सही, नफ़रतों से सहमे दौर में ताज़ा हवा के झोंके की तरह है। मुश्किल तब होती है जब प्रेम को हम स्त्री-पुरूष के बीच के दैहिक आकर्षण तक सीमित कर देते हैं। प्रेम का अर्थ ज्यादा व्यापक है। कल वैलेंटाइन सप्ताह का पहला दिन 'रोज डे' है। चलिए अपने प्रिय लोगों -  मां-पिता, भाई-बहन, पति-पत्नी, बेटे-बेटी, प्रेमी-प्रेमिका, आत्मीय मित्रों को एक-एक गुलाब पेश करते हैं। गुलाब पर अगर बाज़ार का कब्ज़ा है तो अपने चाहने वालों को गुलाब का एक-एक पौधा भेंट कर दें। ये पौधे साल दर साल खिलेंगे और उन्हें आपकी याद दिलाते रहेंगे। सबसे बेहतर तो यह होगा कि गुलाब का सहारा लेने के बजाय हम ख़ुद गुलाब बनकर अपने तमाम रिश्तों को प्यार की ख़ुशबू से सराबोर कर दें।


दिल का खानाख़राब करते हैं 
प्यार यूं बेहिसाब करते हैं 
सबसे एक फूल मांगना कैसा 
आज ख़ुद को गुलाब करते हैं !


सभी मित्रों को 'रोज डे' की अग्रिम शुभकामनाएं !


ध्रुव गुप्त