‘मुन्सीपैलिटी’ के दर्जे की विधानसभा के चुनाव में मिली शर्मनाक हार से अकबकाई दुनिया की सबसे बडी राजनीतिक पार्टी भाजपा, अभी कुछ दशक पहले तक समूचे भारतवर्ष की सत्ता संभालने वाली, इसी चुनाव में नेस्त-नाबूद पडी कांग्रेस और खेलते-कूदते देश की राजधानी पर काबिज होने वाली ‘नवजात’ ‘आम आदमी पार्टी’ (आप) के बीच लडे गए चुनाव-समर से देश को आखिर क्या हासिल हुआ है? राजनीति को प्रचलित ‘मैंनेजमेंट’ से कोसों आगे ‘तिकडम’ के दर्जे तक ले जाकर कई राज्यों में सरकार बनवाने वाली भाजपा की राह में बडा अडंगा खडा करने से भले ही बाकी की पार्टियां ‘आप’ की बलैय्यां लेने को उतावली हो रही हों, लेकिन क्या यही ‘आप’ हमारे देश को एक नई राजनीति और प्रशासन देने की वजह बन पाएगी? क्या अभी 2012 में गठित ‘आप’ पिछली सदी से राजनीति कर रहीं राजनीतिक जमातों को कुछ नया सिखा पाएगी?
इसी सप्ताह दिल्ली की सत्ता पर तीसरी बार काबिज हुई ‘आप’ की दुंदुभी उसके काम की बिना पर बजी है। देशभर की राजनीतिक पार्टियों, चुनाव में प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस और हर हाल में हराने को हुलफुलाती रही भाजपा तक ‘आप’ के काम को तरजीह देती दिख रही हैं, लेकिन क्या ‘आप’ के शिक्षा, स्वास्थ्य, पानी, बिजली के असरकारी काम किसी भी राज्य या देश की सूरत-ए-हाल बदलने के लिए काफी होंगे? क्या बदलाव की राजनीति के मुकाबले सरकार और प्रशासन की ये मामूली कामकाजी जिम्मेदारियां अंतत: कोई बुनियादी बदलाव की दिशा तय कर पाएंगी? और क्या अलग-अलग राज्यों और केन्द्र में सालों-साल सरकार चलाने वाली राजनीतिक पार्टियां इतने बुनियादी, प्राथमिक कामों को ही नजरअंदाज करती रही हैं?
मसलन-‘आप’ ने दिल्ली के हरेक नागरिक को एक निश्चित मात्रा में फोकट का पानी देने की पेशकश की है। कहा जा रहा है कि इस तरकीब से एक तो सभी को पानी मिलेगा और दूसरे, फोकट की सीमा से थोडा भी ज्यादा खर्च होने पर कीमत देने के डर से पानी की बचत भी होगी। लेकिन क्या इस सारे हिसाब-किताब में कोसों दूर उत्तराखंड के टिहरी या हरियाणा से लाया जाने वाला किसी और के हिस्से का पानी भी शामिल होगा जिसे पैसे वाली राजधानी होने के नाते दिल्ली खींच रही है? क्या ‘आप’ की राजनीति और प्रशासन में वह सिद्धान्त नहीं है जिसके मुताबिक जल, जंगल और जमीन जैसे प्राकृतिक संसाधन ‘स्थानांतरित’ नहीं किए जाते और यदि जरूरी हो तो पहले स्थानीय स्तर पर उनका इंतजाम करना होता है? ठीक ये ही सवाल शिक्षा, स्वास्थ्य और बिजली पर भी हैं। शिक्षा के लिए बेहतरीन, सर्व-सुविधा सम्पन्न स्कूल बन जाने से यह सवाल हल नहीं होता कि इन स्कूलों में पढाया क्या जा रहा है? क्या इन ‘पब्लिक स्कूलों’ से टक्कर लेते विद्यालयों में भी वही सब पढाया-सिखाया जा रहा है जिसमें लोकतंत्र के बेहतर नागरिक बनाने की काबिलियत धीरे-धीरे घटती जा रही है? यही बात स्वास्थ्य के मामले में भी है जहां स्वस्थ्य रहने से ज्यादा अहमियत इलाज को दी जाती है।
ये और ऐसे सवाल ’आप’ के पाठ्यक्रम में शुरु से ही नदारद हैं। ‘आप’ के गठन में देशभर के जन-आंदोलनों की शुरुआती भागीदारी थी और वे शीर्ष नेताओं से लगातार पूछते रहते थे कि पार्टी बडे बांध, श्रम, विस्थापन, खेती, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार आदि पर क्या नीति, नजरिया रखती है, लेकिन इसके जबाव में सार्वजनिक तौर पर कभी कोई उत्तर नहीं दिया गया। एक जबाव जो उस दौर के ‘आप’ के नेताओं से मिलता था, वह था कि ‘नीतियां जनता बनाएगी इसलिए पहले पार्टी से जनता को जोडना होगा, फिर जनता की भागीदारी से हर मसले पर नीतियों का निर्माण किया जाएगा।‘ एक दौर में समूचा ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ ‘आप’ में समाहित हो गया था, लेकिन उन्हें भी इस सवाल का कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिला कि ‘आप’ की सरकार बडे बांध बनाएगी या नहीं या उनमें कितना, कैसा विस्थापन-पुनर्वास होगा।
कुल मिलाकर ये सवाल ‘आप’ की विकास की उस अवधारणा को उजागर करने के लिए किए जाते थे जिसके चलते देशभर में अश्लील गैर-बराबरी, भुखमरी और हिंसक दमन फल-फूल रहा है, लेकिन ‘आप’ की इन बुनियादी सवालों और उनके इर्द-गिर्द की राजनीति में कोई खास रुचि नहीं थी। क्यों? इसे समझना हो तो पहले ‘आप’ की जन्मपत्री खंगालनी पडेगी। आईआईटी-खडगपुर की डिग्री और कई साल की सरकारी नौकरी के अनुभवों के भरोसे अरविन्द केजरीवाल ने पहले ‘सूचना के अधिकार’ और फिर अन्ना हजारे की सोहबत में भ्रष्टाचार विरोधी मुहीम में हाथ अजमाए थे, लेकिन इतने से कोई खास बात नहीं बनी। नतीजे में केजरीवाल और उनके कुछ मित्रों ने सत्ता की मार्फत बदलाव की राजनीति की तजबीज को अजमाने का तय किया। नतीजे में ‘आम आदमी पार्टी’ का गठन किया गया और दिल्ली समेत देश के कई राज्यों में चुनाव लडे गए। इन चुनावों में पहली बार सार्वजनिक मैदान में उतरी ‘आप’ ने अपने चुनाव-यज्ञ में ही बता दिया था कि वह और कुछ भी हो, राजनीतिक पार्टी नहीं है। चुनाव लडने के उसके तौर-तरीकों, उम्मीदवारों के चयन और संसाधनों के जुगाड ने ही साफ कर दिया था कि ‘आप,’ अपनी जन्मकुंडली के मुताबिक सिर्फ एक गैर-सरकारी संगठन यानि एनजीओ भर है।
सब जानते हैं कि एनजीओ राज्य का ही विस्तार होता है। यानि नागरिक के हित में जो भूमिका राज्य को निभानी चाहिए उन्हें अपनी निष्ठा, बेहतर तरीकों और ईमानदारी से एनजीओ निभाते हैं, लेकिन इसके दाहिने-बाएं देखना-समझना उनकी फितरत में नहीं होता। दिल्ली के ताजा चुनाव ही देखें तो भाजपा के तरह-तरह के उकसावे के बावजूद ‘आप’ ने शिक्षा, स्वास्थ्य, पानी, बिजली आदि के अपने काम के प्रचार के अलावा किसी बात-विचार पर, कोई ‘स्टेंड’ नहीं लिया। हनुमान-विवाद की तरह कई बार ‘आप’ ने भाजपा की भाषा में ही जबाव देने की कोशिश जरूर की, लेकिन कभी ऐसा नहीं हुआ कि वह अपना कोई राजनीतिक ’स्टेंड’ उजागर करती। यहां तक कि चुनाव में महती भूमिका निभाने वाले ‘शाहीन बाग,’ ‘जेएनयू’ और ‘जामिया मिल्लिया इस्लामिया’ पर हुए पुलिस और गुंडों के हमलों और वरिष्ठ भाजपाई नेताओं की अपमानजनक भाषा तक को ‘आप’ ने अनदेखा कर दिया। तो क्या ‘आप’ और उसके कार्यकर्ता साम्प्रदायिकता, विकास, जाति, महिला, रोजगार आदि ज्वलंत मुद्दों पर कोई राय नहीं रखते? या वे समझते हैं कि फोकट या बेहद कम कीमतों में मिलने वाली शिक्षा, इलाज, पानी, बिजली आदि की सुविधाएं पाकर नागरिक खुद इन सवालों से निपट लेगा?
दिल्ली विधानसभा के चुनाव के बाद आई ‘एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्मस्’ (एडीआर) की रिपोर्ट से पता चला है कि सत्तारूढ ‘आप’ के कुल 62 में से 38 विधायकों पर अपराधिक प्रकरण, 33 पर गंभीर अपराधिक आरोप, 11 पर महिलाओं से अपराध और एक के विरुद्ध हत्या का प्रकरण दर्ज है। राजनीति हो या एनजीओ, किसी की आचार-संहिता में आधे से अधिक विधायकों का अपराधी होना मुनासिब नहीं माना जाता, लेकिन देश की तमाम राजनीतिक जमातों की तरह ‘आप’ भी सत्ता की मार्फत बदलाव करने में भरोसा करती है और इसीलिए अपने उम्मीदवारों को टिकट देते समय सबकी तरह उनकी अपराधिक पृष्ठभूमि की बजाए ‘जिताऊ’ हैसियत को तरजीह देती है। अलबत्ता, चुनाव जीतकर ‘आप’ के विधायक बने सौरभ भारद्वाज ने जरूर एक मार्के की बात कही है। उनका कहना है कि अब अगले पांच साल हम लोगों के राजनीतिक प्रशिक्षण में लगाएंगे। जाहिर है, उन्हें यह समझ आ गया है कि शिक्षा, स्वास्थ्य, पानी, बिजली की तमाम कवायद मामूली सी हिन्दू’-मुस्लिम की राजनीति के जरिए मटियामेट की जा सकती है। उम्मीेद करें कि ‘आप’ में और भी कई ‘सौरभ भारद्वाज’ हों।
------------------------राकेश दीवान।