दीवान-ए-ग़ालिब' को पढ़ना एक बिल्कुल अलग अहसास है।

दिल भी या रब कई दिए होते


भारतीय साहित्य के हज़ारों साल के इतिहास में कुछ ही लोग हैं जो अपने विद्रोही स्वर, अनुभूतियों की अतल गहराईयों और सोच की असीम ऊंचाईयों के साथ भीड़ से अलग दिखते हैं। निश्चित रूप से मिर्ज़ा ग़ालिब उनमें से एक हैं। मनुष्यता की तलाश, शाश्वत तृष्णा, मासूम गुस्ताखियों और विलक्षण अनुभूतियों के इस अनोखे शायर के सौंदर्यबोध से गुज़रना एक दुर्लभ अनुभव है। लफ़्ज़ों में अनुभूतियों की परतें इतनी कि जितनी बार पढ़ो, नए-नए अर्थ खुलते जाते हैं। वैसे तो हर शायर की कृतियां अपने समय का दस्तावेज़ होती हैं, लेकिन अपने दौर की पीडाओं की नक्काशी का ग़ालिब का अंदाज़ भी अलग था और तेवर भी जुदा। यहां कोई रूढ़ जीवन-मूल्य, स्थापित जीवन-दर्शन नहीं है। रूढ़ियों का अतिक्रमण यहां जीवन-मूल्य है, आवारगी जीवन-शैली और अंतर्विरोध जीवन दर्शन। ज़िन्दगी की तमाम दुश्वारियों और भावनाओं की जटिलताओं से टकराते हुए ग़ालिब ने देश-दुनिया को वह सब दिया जिसपर आने वाली सदियां गर्व करेंगी। 


'दीवान-ए-ग़ालिब' को पढ़ना एक बिल्कुल अलग अहसास है। वहां हम ग़ालिब के अंतर्संघर्षों, उनके फक्कड़पन और उन हज़ारों ख़्वाहिशों की दबी-दबी चीखें भी पढ़ पाते हैं जिनके पीछे ग़ालिब उम्र भर भागते रहे। ग़ालिब मतलब अधूरे सपनों और नामुकम्मल ख्वाहिशों का वैसा सफ़र जो कभी किसी का भी पूरा नहीं होता। ग़ालिब मतलब रवायतों को तोड़कर आगे निकलने की बेचैनी। जीवन और मृत्यु के उलझे हुए रिश्ते को सुलझाने की बेचैनी। दुनियादारी और आवारगी के बीच तालमेल बिठाने की बेचैनी। अपनी तनहाई को लफ़्ज़ों से पाटने की बेचैनी। इश्क़ के उलझे धागों को खोलने और उसके सुलझे सिरों को फिर से उलझाने की बेचैनी। 


ग़ालिब की पुण्यतिथि (15 फरवरी) पर खिराज़-ए-अक़ीदत !


ध्रुव गुप्त


लेखक सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी हैं