बेहद करीब से देखा था, मैंने उन दिनों इंसानों को हैवान बनते

वर्ष 2002 की रचना। समकाल समेत अन्य पत्रिकाओं/समाचार पत्रों में प्रकाशित हुई थी। पुनः आपके समक्ष...


अपनों का ग़म


मातमी सन्नाटे में डूबा शहर और कुत्तों के रोने की आवाज़
वीरान सड़कें व शांत आकाश में, चंद परिंदों की मौजूदगी
रह-रह कर छाई ख़ामोशी को भंग करती हुई ज़िंदगी का अहसास करा रही थी.
बीते दिनों शहर में जली दंगे की इस आग ने
देखते ही देखते अपनी ज़द में ले लिया यहां के अमन और भाईचारे को
मारे गए हज़ारों बेगुनाह, तबाह हुए अनगिनत परिवार
बेहद करीब से देखा था, मैंने उन दिनों इंसानों को हैवान बनते
दोस्त को दोस्त का क़त्ल करते
सारी शराफ़तों और ज़ज्बातों को धू-धू कर जलते देखा
आग़ के उस दरिया में
आज बेशक़ इस शहर ने अपनी रफ़्तार पकड़ ली हो, लेकिन
ज़ख्मों के वह निशान दिल में आज भी क़ायम हैं, जो
याद दिलाते हैं अपनों से बिछड़ने का ग़म
संबंधों के मिट जाने का ग़म.


-  अभिषेक रंजन सिंह


लेखक समाजवादी विचारक और स्वतंत्र पत्रकार है