मोतीलाल नेहरू केमटी की सिफ़ारिशें
इतिहासकार उमा कौरा ने लिखा है कि विभाजन की रेखा तब गहरी हो गई जब 1929 में मोतीलाल नेहरू कमेटी की सिफ़ारिशों को हिंदू महासभा ने मानने से इनकार कर दिया. मोतीलाल नेहरू कमेटी ने अन्य बातों के अलावा इस बात की भी सिफ़ारिश की थी कि सेंट्रल एसेम्बली में मुसलमानों के लिए 33 प्रतिशत सीटें आरक्षित हों.
आयशा जलाल ने लिखा है कि 1938 आते-आते जिन्ना मुसलमानों के 'अकेले प्रवक्ता' बन गए क्योंकि वे ही उनकी माँगों को ज़ोरदार तरीक़े से उठा रहे थे!
दूसरी ओर, इतिहासकार चारू गुप्ता ने लिखा है, "कांग्रेस के भीतर के हिंदूवादी और हिंदू महासभा के नेता जिस तरह 'भारत माता, मातृभाषा और गौमाता' के नारे लगा रहे थे उससे बहुसंख्यक वर्चस्व का माहौल बन रहा था" जिसमें मुसलमानों का ख़ुद को असुरक्षित समझना अस्वाभाविक नहीं था!
ये भी ग़ौर करने की बात है कि 1932 में गांधी-आंबेडकर के पुणे पैक्ट के बाद जब 'हरिजनों' के लिए सीटें आरक्षित हुईं तो सर्वणों में बेचैनी बढ़ी कि उनका दबदबा कम हो जाएगा!
बंगाल विभाजन ने डाली नींव
इतिहासकार जोया चटर्जी का कहना है कि 1932 के बाद बंगाल के हिंदू-मुसलमानों का टकराव बढ़ता गया जो विभाजन की भूमिका तैयार करने लगा. दरअसल, 1905 में धर्म के आधार पर बंगाल का विभाजन करके अंग्रेजों ने विभाजन की नींव तैयार कर दी थी वे लिखती हैं, "पूर्वी बंगाल में फ़ज़ल-उल-हक़ की 'कृषि प्रजा पार्टी' का असर बढ़ा और पूना पैक्ट के बाद 'हरिजनों' के लिए सीटें आरक्षित हुईं जिसका असर ये हुआ कि सवर्ण हिंदुओं का वर्चस्व घटने लगा, इसकी उन्होंने कल्पना नहीं की थी. इसका नतीजा ये हुआ है कि बंगाल के भद्रजन ब्रिटिश विरोध के बदले, मुसलमान विरोधी रुख़ अख़्तियार करने लगे."
विलियम गोल्ड ने लिखा है कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के बड़े नेताओं--पुरुषोत्तम दास टंडन, संपूर्णानंद और गोविंद बल्लभ पंत--का झुकाव हिंदूवाद की ओर था जिसकी वजह से मुसलमान अलग-थलग महसूस कर रहे थे!
मगर दूसरी ओर ये भी सच है कि विभाजन में सांप्रदायिकता की भूमिका भी कम नहीं थी. फ्रांसिस रॉबिनसन और वेंकट धुलिपाला ने लिखा है कि "यूपी के ख़ानदानी रईस और ज़मींदार समाज में अपनी हैसियत को हमेशा के लिए बनाए रखना चाहते थे" और उन्हें लगता था कि हिंदू भारत में उनका पुराना रुतबा नहीं रह जाएगा!
अनेक इतिहासकारों ने लिखा है कि 1937 में कांग्रेस के नेतृत्व में जब सरकार बनी तो हिंदू और मुसलमान, दोनों ओर के सांप्रदायिक तत्वों में सत्ता का बड़ा हिस्सा हथियाने की होड़ लग गई जो 1940 के बाद लगातार कटु होती गई. जब कांग्रेस से जुड़े मुसलमान ख़ुद को अलग-थलग महसूस करने लगे तो जिन्ना की मुस्लिम लीग ने अपनी राजनीति चमकाने के लिए इसका पूरा फ़ायदा उठाया!
ग़ौर करने की बात है कि अँगरेज़ों ने मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा दोनों को बढ़ावा दिया क्योंकि वे उनसे नहीं लड़ रहे थे, जबकि 1942 में 'भारत छोड़ो आंदोलन' के दौरान लगभग सभी बड़े कांग्रेसी नेताओं को जेल में डाल दिया गया था, ऐसे में लीगी-महासभाई तत्वों की बन आई.
आप अगर समझते हैं कि मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा के बीच कोई झगड़ा था तो आपको ज़रूर जानना चाहिए कि जब कांग्रेस के नेता जेल में थे तो बंगाल, सूबा सरहद और सिंध में मिलकर सरकारें चला रहे थे जिससे उनकी सांप्रदायिक राजनीति मज़बूत हुई. साथ ही गांधी-नेहरू ने जो हिंदू-मुस्लिम एकता की बुनियाद रखी थी वो कमज़ोर हो गई!
समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया ने अपनी किताब 'गिल्टी मेन ऑफ़ पार्टिशन' में लिखा है कि कई बड़े कांग्रेसी नेता जिनमें नेहरू भी शामिल थे वे सत्ता के भूखे थे जिनकी वजह से बँटवारा हुआ!
नामी-गिरामी इतिहासकार बिपन चंद्रा ने विभाजन के लिए सांप्रदायिकता को ज़िम्मेदार ठहराया है जबकि कुछ इतिहासकारों का कहना है कि 1937 के बाद कांग्रेस मुसलमान जनमानस को अपने साथ लेकर चलने में नाकाम रही इसलिए विभाजन हुआ!
कई इतिहासकारों का मानना है कि 1946 के बाद जब सांप्रदायिक हिंसा नियंत्रण से बाहर हो गई तो विभाजन के अलावा कोई विकल्प नहीं रह गया इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अँगरेज़ी हुकूमत ने भी स्थिति को बद से बदतर बनाया, माउंटबेटन और रेडक्लिफ़ ने बँटवारे के मामले में बहुत जल्दबाज़ी दिखाई, पहले भारत की आज़ादी के लिए जून 1948 तय किया गया था, माउंटबेटन ने इसे खिसका कर अगस्त 1947 कर दिया गया जिससे भारी अफ़रा-तफ़री फैली और असंख्य लोगों की जानें गईं!
कुल मिलाकर, बँटवारा एक ऐसा मामला है जिसमें सब लोग ये ढूँढने की कोशिश करते हैं कि ज़िम्मेदार कौन है, लेकिन समझने की बात है कि इतनी बड़ी घटना के पीछे एक व्यक्ति नहीं बल्कि बहुत सारी शक्तियाँ काम कर रही होती हैं!
मुख्तार अहमद