निदा कई बार मुझे आज के कबीर लगते थे
एक मुशायरे में निदा फाजली साहब के एक शेर की बहुत आलोचना हुयी और उन्हें पूरी रचना पढ़े बिना जाना पड़ा ,शेर था :-
उठ-उठ के मसजिदों से नमाज़ी चले गए
दहशतगरों के हाथ में इसलाम रह गया
लोगों ने माइक छीन लिया ,वो तो हिंदोस्तान था कि ऐसा कहकर भी वो बच गए नहीं तो लोगों ने मंसूर ,सुकरात किसी का सच बर्दाश्त ही कहां किया । समाज राहत इन्दोरियों के सुर में सुर मिलाता है , निदा नकारे जाते हैं लेकिन लोगों को समझ में आना चाहिए मंसूर सुकरात कबीर को नकारा नहीं जा सकता ,मारा नहीं जा सकता।
लोग नाराज थे ,लोग तब भी नाराज थे जब उन्होंने कहा था :-
घर से मस्जिद है बहुत दूर,चलो यूं कर लें,
किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए
लोगो ने हंगामा उठा रखा था ,भारत पाकिस्तान के कट्टरपंथी धमकिया दे रहे थे ,वो सच कहते है ,उन्होंने एक बार कहा था :-
तुम्हें कातिल कहूं कैसे
तुम्हें मुजरिम कहूं कैसे
तुम्हारी जेब में खंजर
न हाथों में कोई बम था
तुम्हारे रथ पे तो
मर्यादा पुरुषोत्तम का परचम था
क्या बुरा कहा था ,सच तो था ,क्यों बुरा माना जाये ,वो एक जगह कहते भी है :-
दो और दो का जोड़ हमेशा चार कहाँ होता है
सोच समझवालों को थोड़ी नादानी दे मौला
फिर रोशन कर ज़हर का प्याला चमका नई सलीबें
झूठों की दुनिया में सच को ताबानी दे मौला
फिर मूरत से बाहर आकर चारों ओर बिखर जा
फिर मंदिर को कोई मीरा दीवानी दे मौला
तेरे होते कोई किसी की जान का दुश्मन क्यों हो
जीने वालों को मरने की आसानी दे मौला
उन्होंने ऐसा भी कहा था :-
एक बच्चा देख कर बोला मस्जिद आलिशान
अल्लाह तेरे एक को इतना बड़ा मकान
अन्दर मूरत पर चढे खीर , पुडी मिष्ठान
बाहर हाथ फैलाये ईश्वर मांगे दान
और अंत में शायद मन ही मन निदा साहब कह गए होंगे :-
अपना चेहरा न देखा गया
आईने से खफा हो गए
आज के कबीर को अलविदा ।निदा तुम बहुत याद आओगे , आज सच कहने वाले बहुत कम है ।