11फरवरी:जन्मदिन विशेष
तिलका मांझी:हंसी हंसी चढ़वो फांसी
आदिवासी जनजातियों की भारत के स्वतंत्रता संग्राम में उल्लेखनीय भूमिका रही है.इन आदिवासी जनजातियों ने विद्रोह का बिगुल बजाया जो एक ओर तत्कालीन राजाओं और सामंतों के खिलाफ था जो बाद को अंग्रेजों के साथ संघर्ष में तब्दील हो गया. उन्होंने कई बार संघर्ष में अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए चाहे वे संथाली हों, मध्य प्रदेश, राजस्थान,गुजरात के भील हों या पूर्वी मध्य प्रदेश और महाराष्ट के गोंड, कोरकू आदिवासी हों.बिरसा मुंडा, सिदो कान्हू, चाँद भोरभ, शेख भिखारी, तिलका माझी, बुध्द भगत, रघूनाथ मुंगू जैसेक्रांन्तिकारियोंनेछोटा नागपुर और संथाल परगना में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ जो शंखनाद किया उसी का असर है कि इन दोनों परगनाओं के गुमला, लातेहार, लोहरदगा, हजारीबाग, साहिबगंज पश्चिमी सिंहभूम, पूर्वी सिंहभूम, पलामू आदि जिलों की दुगर्म पहाड़ियों में फैले आदिवासियों में शोषण, गुलामी, सूदखोरी के खिलाफ एक नई चेतना जगी.अंग्रेजी हुकूमत किसी भी कीमत पर राजमहल की पहाडियों पर कब्जा करना चाहती थी .अंग्रेजों की बढती ताकत और गुलामी के भय से संथालों ने विद्रोह कर दिया। लेकिन, अंग्रेजों ने आंदोलन को बर्बरता से दबाने का अपना प्रयास जारी रखा.
सन् 1742 में मराठों ने राजमहल को अपने कब्जे में ले लिया था.सन् 1757 में सिराजुद्दौला को मीर दाउद ने पकडा और उसे मुर्शिदाबाद लाकर मार डाला.अंग्रेजों ने सन् 1758 में मीर जाफर कोमुर्शिदाबादकानवाब बनाया. अंग्रेजोंनेसन्1758में मीरजाफरको मुर्शिदाबाद का नवाब बनाया. इस तरह, मुर्शिदाबाद की असली मालिक ईस्ट इंडिया कंपनी बन गई.
1771 से 1784 तक तिलका माँझी अंग्रेजी शासन के विरुध्द भागलपुर और राजमहल में जन-आंदोलन का नेतृत्व अत्यंत साहसपूर्वक करते रहे.उन्होंने ने संथालों के विद्रोह का नेतृत्व अपने हाथ में लिया और छापामार युध्द द्वारा अंग्रेजों को भागलपुर और राजमहल की पहाडयों से खदेड दिया.
भारत के प्रथम स्वतंत्रता-सेनानी तिलका माँझी उर्फ जबरा पहाड़ियाका जन्म एक संथालपरिवारमें11फरवरी,1750 ई0 को तिलकपुर गाँव के सुल्तानगंज में हुआ था.
उन्होंने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध लंबी और कभी न समर्पण करने वाली लड़ाई लड़ी और स्थानीय महाजनों-सामंतों व अंग्रेजी शासक की नींद उड़ाए रखा. पहाड़िया लड़ाकों में सरदार रमना अहाड़ी और अमड़ापाड़ा प्रखंड (पाकुड़, संताल परगना) के आमगाछी पहाड़ निवासी करिया पुजहर और सिंगारसी पहाड़ निवासी जबरा पहाड़िया भारत के आदिविद्रोही हैं.इन्होंने 1778 ई. में पहाड़िया सरदारों से मिलकर रामगढ़ कैंप पर कब्जा करने वाले अंग्रेजों को खदेड़ कर कैंप को मुक्त कराया.
तिलका माँझी संथाली विद्रोहियों के सर्वमान्य नेता थे और ब्रितानी सेना का संचालन कर रहा था ब्रितानी मजिस्टे्रट क्लीवलैंड.ब्रितानी सेना पहाड़ी से कितनी दूरहै,यह देखने के लिए वह बहुत ऊँचे ताड़ के वृक्ष पर चढ गया.स्थिति का लाभ उठाने के लिए वे घोड़े पर चढकर ताड़ के वृक्ष की ओर लपक पड़े। उनका इरादा था कि विद्रोही तिलका को या तो जीवित गिरफ्तार कर लिया जाए या उन्हें मार दियाजाए.ताड़वृक्षकेनीचेपहुँचकरक्लीवलैंडने ललकार कर कहा- तिलका तुम अपना धनुष-बाण दो और वृक्ष से नीचे उतरकर हमारे सामने समर्पण कर दो. वीर तिलका ने अपनी जाँघों में ताड़ वृक्ष को दबाकर अपने दोनों हाथ मुक्त कर लिए और कंधे पर टँगा घनुष उतारकर एक तीर क्लीवलैंड को निशाना बनाकर छोड़ दिया. तिलका का तीर क्लीवलैंड की छाती में गहरा घुस गया. वह घोड़े से गिरकर छटपटाने लगे. इस बीच तिलकाफुर्तीकेसाथ उतरे और ब्रितानी सेना के आने के पहले जंगल में विलीन हो गए.ब्रितानी सेना जब घटनास्थल पर पहुँची तो उसे अपने अफ़सर का शव ही हाथ लगा. इस प्रकार तिलका माँझी छापामार युध्द का सहारा लेकर ब्रितानी सेना के साथ युध्द करते हुए मुंगेर, भागलपुर और परगना की चप्पा-चप्पा भूमि को रौंद रहे थे.
सर आर्थर कूट को ब्रिटिस सेना का नेतृत्व मिला . सेना ने कुछ दिन के लिए बिद्रोहियों का पीछा करना बंद कर दिया तिलका और उनके साथियों ने सोचा कि ब्रितानी सेना निराश होकर पलायन कर गई है. जिससमय ब्रिदोही संथाल विजयोत्सव मनाने में लीन थे ब्रितानी फ़ौज ने उन लोगों पर ज़ोरदार आमण कर दिया.बहुत से संथाली वीर या तो मारे गए या बंदी बना लिए गए.बड़ी मुश्किल से उनके नेता तिलका माँझी और उनके कुछ साथी निकलने में सफल हो गए वह पर्वत श्रृंखला में छिप-छिपकर युध्द करने लगे. वे छिप-छिप कर युध्द करने लगे.खाद्य सामग्री की भी कमी हो गयी.लेकिन दृढ़ विश्वासी तिलका मांझी भूख से मरने के स्थान पर तो आमने-सामने युध्द में मरना अच्छा समझा.तिलका और उनके साथी एक दिन ब्रितानी सेना पर टूट पड़े. इस भयंकर युद्ध में संथालविद्रोहियों ने बहुत से ब्रितानी सैनिकों को मार गिराया.लेकिन ब्रितानी सेना तिलका को गिरफ्तार करने में सफल हो गए.
ब्रितानी सेनावीरतिलकामाँझी को चार घोडों से बाँधकर भागलपुर तक घसीटते हुए लाई .पर मीलों घसीटे जाने के बावजूद वह पहाड़िया लड़ाका जीवित था। खून में डूबी उसकीदेह तब भी गुस्सैल थी और उसकी लाल-लाल आंखें ब्रितानी राज को डरा रही थी. भय से कांपते हुए
और बडी बेरहमी से तिलका माँझी चौक में एक बरगद के पेड की डाल से बाँधकर फाँसी दे दी गई.13 जनवरी 1785हजारों की भीड़ के सामने जबरा पहाड़िया उर्फ तिलका मांझी हंसते-हंसते फांसी पर झूल गए.
बांग्लाकीसुप्रसिद्धलेखिका महाश्वेता देवी ने तिलका मांझी के जीवन और विद्रोह पर बांग्ला भाषा में एक उपन्यास 'शालगिरर डाके' की रचना की है.अपने इस उपन्यास में महाश्वेता देवी ने तिलका मांझी को मुर्मू गोत्र का संताल आदिवासी बताया है.यह उपन्यास हिंदी में 'शालगिरह की पुकार पर' नाम से अनुवादित और प्रकाशित हुआ है.हिंदी केउपन्यासकार राकेशकुमारसिंहनेजबकि अपने उपन्यास ‘हूल पहाड़िया’ में तिलका मांझी को जबरा पहाड़िया के रूप में चित्रित किया है . ‘हूल पहाड़िया’ उपन्यास 2012 में प्रकाशित हुआ है.
दुनिया का पहला आदिविद्रोही रोम के पुरखा आदिवासी लड़ाका स्पार्टाकस को माना जाता है . भारत के औपनिवेशिक युद्धों के इतिहास में जबकि पहला आदिविद्रोही होने का श्रेय पहाड़िया आदिम आदिवासी समुदाय के लड़ाकों को माना जाता हैं जिन्होंने राजमहल, झारखंड कीपहाड़ियों पर ब्रितानी हुकूमत से लोहा लिया .
अंग्रेजों के खिलाफ लडने वालेजुझारूआदिवासी सेनानी तिलका माँझी ने जिसकदरअंग्रेजोंसे लोहालिया,वह आज भी लोकगीतों के स्वरों में फूटता है.राजमहल की पहाड़ियों में आज भी एक गीत गूँजता है-
"बाबा तिलका माँझी खाम खुंटी काना हो गाँधी बाबाय मुतुलखाम खुंटी कानासन."
औपनिवेशिक प्रभुत्व, सामंती व्यवस्था, साम्रायवाद और राजतंत्र के खिलाफ लड़ाई तिलका का यह संदेश हमें कभी भूलना चाहिए जिसे वह पत्तों पर लिखकर छोड़ा,
"We must be united."अन्त में निर्मला पुतुल अपनी कविता "मर के भी अमर रहते हैं सच्चाई के लिए लड़ने वाले " के शब्दों को दुहराते हुए
"तुम्हारी क़ब्र की दरारों से
आवाज़ें आती रहेंगी और हमें बुलाती रहेंगी
और लहू के कतरे जो ज़मीन पर गिरे
उनसे प्रस्फुटित होंगे हज़ारों-हज़ार ललित मेहता
इससे पहले भी इस धरती पर कई योद्धाओं ने
देश की ख़ातिर कुरबानी दी,
उसी के लहू के कतरों से
तुम जैसे संघर्षरत योद्धा अंकुरित हुए
और आगे भी अंकुरित होते रहेंगे ।
तुम्हारा लहू जहाँ गिरे वहाँ से पेड़ भी जनमेंगे तो
तुम्हारी शक्लों में दिखेंगे और
चीख़ेंगे व्यवस्था के विरुद्ध,
तुम्हारी हत्या साबित करती है कि
सच बोलने वाले ऐसे ही मार दिए जाते हैं
उनको जीतने से पहले हरा दिया जाता है
मार दिया जाता है ज़िन्द रहने से पहले
पर इतिहास गवाह ऎसे लोग मरते नहीं कभी
ज़िन्दा रहते हैं मरकर भी ।
ठीक वैसे ही तुम भी रहोगे ज़िन्दा
यहाँ की आबोहवा में
एक-एक मनुष्य की स्मृतियों में और
हमेशा-हमेशा के लिए ज़िन्दा रहोगे
इतिहास के पन्नों में...।"
लेखक -Sunil Singh