आदिवासी भाषाओं की नियुक्तियां कँहा गईं ???

झारखंड की आदिवासी भाषाओं की बहाली का प्रश्न एक लंबे काल से अटका हुआ है।  इन आदिवासी भाषाओं की पहली नियुक्ति 1986 में ट्राइबल लैंग्वेज डिपार्टमेंट में बनने के साथ हुई थी। कुल 9 भाषाओं की पढ़ाई वंहा होती रही है, जिसमे से 5 आदिवासी भाषाएँ(उरांव, संथाली, मुंडा, हो, खड़िया) है और बाकी अन्य भाषाएँ खोरठा,कुरमाली, नागपुरी और पंचपरगनिया है, जो गैर आदिवासी है।
यँहा इस विभाग में आदिवासी भाषाओं के शिक्षकों की बहाली लंबे समय  से (1986के बाद से अब तक) रोकी हुई है।
आदिवासी भाषाओं के उत्थान के लिए खोली गई इन भाषाओं की नियुक्तियों को दरकिनार कर केवल दिक्कू भाषाओं की नियुक्ति की यह प्रक्रिया अफ़सोस जनक है।
कुरमाली, नागपुरी, आदि का विरोध नहीं है,
 पर आदिवासी भाषाओं की अदेखी
 बर्दाश्त नहीं की जाएगी।।
JPSC से सवाल है, 
आदिवासी भाषाओं की नियुक्तियां कँहा गईं ???
और
केवल इन दिक्कू भाषाओं की नियुक्ति प्रक्रिया क्या आदिवासी हितों के साथ खिलवाड़ नहीं ?
रांची यूनिवर्सिटी में चंद लोगों के स्वार्थी नतीजों का परिणाम है कि आदिवासी भाषाएँ  आज रोटी नही दे पा रही।
600 रुपये प्रति घंटी  जैसी मजदूर की दरों पर ये शिक्षक अपने बौद्धिक श्रम पर लगे हुए हैं।। जंहा इज़्ज़त, सिक्योरिटी आदि का अभाव है।
हम सभी आदिवासी लेखक समुदाय, राज्य प्रमुख हेमंत सोरेन जी से अनुरोध  करते हैं कि आदिवासी अगुआ होने का प्रमाण स्थापित करें। ।
आदिवासी भाषाओं को बचाने के लिए सामने आएं।
उनको रोज़गार देकर इस समाज की उन्नति का रास्ता खोलें।
हिंदी, संस्कृत, उर्दू, मैथली व अन्य कई भाषाएँ सत्ता के संरक्षण में फल फूल रही तो आदिवासी भाषाएँ क्यों नहीं।।
आइये आदिवासी भाषाओं के सम्मान  में ।
लड़ाई साझा लड़ें।
आदिवासी संस्कृति सभ्यता को बचाने को आगे आ सकते हैं, तो आदिवासी भाषाओं को रोजगार बनने से क्यों ही परहेज़।।
आइये जीते हैं, सामूहिकता में, सबके सम्मान के साथ।।
"नाची से बाची" को थोड़ा आगे ले जायें  "अदिवासी भाषा जो बोली, सेही बाची"।।


Nitisha xaloxo