हम देखेंगे
एक शायर जो जीवन भर इस्लाम विरोधी छवि के साथ जिया, निर्वासन झेला, जेल की यातनाएं सहीं, भारत के हिंदूवादियों ने उसके इस्लामिक होने की कल्पना कर डाली और बहुत डरे हुए हैं।
बात पाकिस्तान की है। तानाशाह ज़िया उल हक़ पाकिस्तान के इस्लामीकरण में लगे हुए थे। पूरे देश में मार्शल लॉ लगा हुआ था। लोकतंत्र खत्म कर दिया गया था। अवाम पर जुल्म बेइंतहा हो गया था। आम लोगों के मूल अधिकारों को भी सस्पेंड कर दिया गया था।
ज़िया उल हक़ ने यह भी फ़रमान जारी किया कि औरतों के साड़ी पहनने पर पाबंदी होगी। फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की नज़्मों और ग़ज़लों पर भी पाबंदी थी।
साल 1985 के एक दिन पाकिस्तान की मशहूर सिंगर इक़बाल बानो इस फरमान के विरोध में लाहौर के एक स्टेडियम में काले रंग की साड़ी पहन कर पहुंच गईं। वे 50000 लोगों की भीड़ के सामने खड़ी थीं। उन्होंने फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की नज़्म गानी शुरू की और लोगों ने इंक़लाब ज़िंदाबाद का नारा लगाना शुरू किया। नज़्म के बीच बीच में लोग इंक़लाब ज़िंदाबाद के नारे लगाते रहे। तालियों की गड़गड़ाहट और नारों के बीच गाई गई यह नज़्म और इक़बाल बानो समेत वह दिन इतिहास में दर्ज हो गया।
वह नज़्म जानते हैं कौन सी थी? वही जिसे गाने पर कानपुर आईआईटी वालों के पेट मे दर्द हो गया। इस गाने के बाद पाकिस्तान की तानाशाह सत्ता भी हिल गई थी। इस गाने के बाद पाकिस्तान के तमाम युवा ज़िया उल हक़ के शासन के खिलाफ उठ खड़े हुए।
मज़ेदार तो यह था कि ये नज़्म भी फ़ैज़ साब ने पाकिस्तान के तानाशाह ज़िया-उल-हक़ के ख़िलाफ़ ही लिखी थी।
फ़ैज़ ऐसे शायर हुए जो लिखते थे और जेल में डाल दिये जाते थे, फिर जेल में ही लिखते थे। फिर बाहर आकर लिखते थे, फिर जेल में डाल दिये जाते थे। फिर लिखते थे।
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ इतने बड़े शायर हो गए कि वे पाकिस्तान के नहीं रह गए। वे पाकिस्तान से तो निष्काषित कर दिए गए थे, लेकिन पूरी दुनिया की सपनों के शायर बन गए। वे संघर्ष और सपनों के ऐसे शायर हैं जिनसे मूर्खता भी डरती है और तानाशाही भी।
व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी वालों को अल्लाह शब्द भर सुनकर परेशानी हो जाती है। कानपुर में शिकायत दर्ज कराने वाला और करने वाला, दोनों ही व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी के वैशाखनंदन हैं, जो एक वामपंथी शायर की नज़्म को इस्लामिक मान बैठे।
इस नज़्म में जनता की तरफ से यह कामना की गई है ज़ालिम का तख़्त एक दिन पलट दिया जाएगा और गरीबों, मजलूमों का शासन होगा।
पढ़िए वह ख़ूबसूरत नज़्म और इसे पढ़ने पर कार्रवाई करने वालों पर लानत भेजिए।
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हम देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिस का वादा है
जो लौह-ए-अज़ल में लिक्खा है
जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गराँ
रूई की तरह उड़ जाएँगे
हम महकूमों के पाँव-तले
जब धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहल-ए-हकम के सर-ऊपर
जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी
जब अर्ज़-ए-ख़ुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जाएँगे
हम अहल-ए-सफ़ा मरदूद-ए-हरम
मसनद पे बिठाए जाएँगे
सब ताज उछाले जाएँगे
सब तख़्त गिराए जाएँगे
बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो ग़ाएब भी है हाज़िर भी
जो मंज़र भी है नाज़िर भी
उट्ठेगा अनल-हक़ का नारा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
और राज करेगी ख़ल्क़-ए-ख़ुदा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो