ग़ालिब के कुछ विशेष शे'र : ग़ालिब की शायरी के समंदर से मात्र कुछ बूंदें हैं ये ::
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इशरते-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना,
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना।
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वो आ रहा मेरे हमसाये में, तो साये से,
हुए फ़िदा दरो-दीवार पर दरो-दीवार।
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हमको सितम अज़ीज़, सितमगर को हम अज़ीज़,
ना-मेहरबां नहीं है, अगर मेहरबां नहीं।
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नज़र लगे न कहीं उसके दस्तो-बाजू को,
ये लोग क्यों मेरे ज़ख्मे-जिगर को देखते हैं।
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न जानूं नेक हूँ या बद हूँ पर सोहबत मुख़ालिफ़ है,
जो गुल हूँ तो ख़सखन में जो ख़स हूं तो गुलशन में।
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है सब्ज़ा-जार हर दरो-दीवारे-ग़म-कदा,
जिसकी बहार ये हो फिर उसकी खिजां न पूछ।
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उग रहा है दरो-दीवार से सब्ज़ा ग़ालिब,
हम बयाबां में हैं और घर में बहार आई है।
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मेरी क़िस्मत में ग़म ग़र इतना था,
दिल भी यारब कई दिए होते।
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मत पूछ कि क्या हाल है मेरा तेरे पीछे,
तू देख कि क्या रंग है तेरा मेरे आगे।
गो हाथ में ज़ुम्बिश नहीं,आँखों में तो दम है,
रहने दो अभी सागरों-मीना मेरे आगे।
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कितने शीरीं हैं तेरे लब, की रक़ीब,
गलियां खा के बेमज़ा न हुआ।
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एतबारे इश्क़ की खाना ख़राबी देखना,
ग़ैर ने की आह, लेकिन वह ख़फ़ा मुझ पर हुआ।
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आईना देख अपना सा मुंह ले के रह गए,
साहब को दिल न देने पे कितना गुरूर था।
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मार्फत - श्रवण कुमार उर्मलिया