देश के मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में शांति, सांप्रदायिक सौहार्द्र, जनकल्याण, धर्मनिरपेक्षता और विकास की बातें बेमानी लगने लगी हैं। मतों का सांप्रदायिक ध्रुवीकरण आज राजनीति का सबसे कारगर अस्त्र है। लोकतंत्र की इस हालत के लिए भाजपा ही नहीं, सभी सियासी दल समान रूप से ज़िम्मेदार हैं। तमाम गैर भाजपाई पार्टियां दशकों तक मुस्लिमों को मूर्ख बनाकर अपने पक्ष में उनके वोटों के ध्रुवीकरण की अथक कोशिशें करती रही हैं। मुस्लिमों की शैक्षणिक और आर्थिक स्थिति सुधारने की जगह उन्हें अपना वोट बैंक बनाने के लिए उन्होंने उनकी कुरीतियों, अंधविश्वासों और हठधर्मिता तक को को हवा दी। इसमें वामपंथी दलों और उनके पोषित बुद्धिजीवियों की भूमिका सबसे गंदी रही जिन्होंने हिन्दू आस्थाओं और उनके देवी-देवताओं पर तो लगातार प्रहार किए, लेकिन मुस्लिमों में व्याप्त कुप्रथाओं के खिलाफ कभी उनकी ज़ुबान नहीं खुली। देर-सबेर इसकी उग्र प्रतिक्रिया होनी थी। भाजपा और संघ ने विपक्षियों की इसी रणनीति को हथियार बनाकर बड़े सुनियोजित तौर पर पिछले कुछ सालों में हिन्दू मतों के ध्रुवीकरण में सफलता पाई है। देश में राजनीति का सांप्रदायिकरण आज अपने चरम पर है। नफ़रत की सियासत को नैतिक वैधता हासिल हुई है। धर्म के आधार पर हत्याओं ताकि को ज़ायज ठहराया जाने लगा है। धर्मनिरपेक्षता इस देश में अब एक गाली है। राजनीति के इस भगवाकरण में सिर्फ भाजपा और संघ की ही नहीं, तमाम विपक्षी दलों के एकपक्षीय आचरण की भूमिका भी रही है।
आने वाले सालों में अगर देश को सांप्रदायिकता के तेजी से फैलते जहर से बचाना है तो देश के तमाम वामपंथी और मध्यमार्गी विपक्षी दलों को अपनी छुपी सांप्रदायिकता की नीति पर पुनर्विचार ही नहीं करना होगा, भविष्य के चुनावों में उन्हें एक कॉमन मैनिफेस्टो के आधार पर और एक सर्वमान्य नेता के साथ एकजुट होकर भाजपा के खिलाफ़ चुनाव में उतरना होगा। अगर यह नहीं हुआ तो आने वाला समय लोकतंत्र की कब्रगाह भी साबित हो सकता है-
By - Dhruv Gupt
( सेवानिवृत्त I.P.S.अधिकारी )