हुई मुद्दत कि ग़ालिब मर गया पर याद आता है !


भारतीय साहित्य के हज़ारों साल के इतिहास में कुछ ही लोग अपने विद्रोही स्वर, अनुभूतियों की अतल गहराईयों और सोच की असीम ऊंचाईयों के साथ सबसे अलहदा दिखते हैं। निर्विवाद रूप से मिर्ज़ा ग़ालिब उनमें एक हैं। मनुष्यता और प्रेम की तलाश, शाश्वत तृष्णा, गहन प्यास, मासूम गुस्ताखियों और विलक्षण अनुभूतियों के इस अनोखे शायर के अनुभव-संसार और सौंदर्यबोध से गुज़रना कविता-प्रेमियों के लिए आज भी एक दुर्लभ अनुभव है। लफ़्ज़ों में अनुभूतियों की परतें इतनी कि जितनी बार पढ़ो, नए-नए अर्थ खुलते जाते हैं। वैसे तो हर शायर की कृतियां अपने समय का दस्तावेज़ होती हैं, लेकिन अपने समय की पीडाओं की नक्काशी का ग़ालिब का अंदाज़ भी अलग था और तेवर भी जुदा था। उनकी शायरी को फ़ारसी और उर्दू शायरी में परंपरागत विषयों से प्रस्थान के रूप में देखा जाता है, जहां कोई रूढ़ जीवन-मूल्य, बंधी-बंधाई जीवन-शैली या स्थापित जीवन-दर्शन नहीं है। रूढ़ियों का अतिक्रमण वहां जीवन-मूल्य है, आवारगी जीवन-शैली और व्यक्तित्व का अंतर्विरोध जीवन-दर्शन। 'दबीर-उल-मुल्क' और 'नज़्म-उद-दौला' के खिताब से नवाजे गए उर्दू के सर्वकालीन महानतम शायर मिर्ज़ा ग़ालिब के यौमे पैदाईश (27 दिसंबर) पर खेराज़-ए-अक़ीदत, उनकी एक ग़ज़ल के अशआर के साथ !


इब्न-ए-मरियम हुआ करे कोई
मेरे दुख की दवा करे कोई


शर'-ओ-आईन पर मदार सही
ऐसे क़ातिल का क्या करे कोई


बक रहा हूं जुनूं में क्या क्या कुछ
कुछ न समझे, ख़ुदा करे कोई


कौन है जो नहीं है हाजतमंद
किसकी हाजत रवा करे कोई


क्या किया ख़िज्र ने सिकंदर से
अब किसे रहनुमा करे कोई


जब तवक़्क़ो ही उठ गयी 'ग़ालिब'
क्यों किसी का गिला करे कोई


by - Dhruv Gupt