अपने प्रसिद्ध लेख “भारतमाता, धरतीमाता” में डॉ. राममनोहर लोहिया ने लिखा था—
“एक जमाना था जब दुनिया के विभिन्न देशों में सैर करने के लिए प्रमाण-पत्र और प्रवेश-पत्र की जरूरत नहीं पड़ती थी। आज राष्ट्रीयता कम हो रही है ज्यादा? एक-दूसरे से भय घट रहा है या बढ़ रहा है?
साथ-साथ वह सब रीति-रिवाज, रस्म, टोने-टोटके भी बढ़ रहे हैं जिससे विशाल प्रेमिका पृथ्वी का निरादर होता है। न जाने किस तर्क से इस निरादर को स्वदेश-आदर में पलट दिया जाता है।”
डॉ. लोहिया आगे इसे और स्पष्ट करते हुए लिखते हैं—
“नागरिकता का कानून इसका बेकार प्रमाण है। आशा की गई थी कि शायद आजाद हिन्दुस्तान नागरिकता का परिभाषा और कानून के संबंध में दुनिया को कोई नई दिशा दिखाए, लेकिन उसने भी गोरों की, यूरोप और अमेरिका की नकल की।
उसने भी शरीर को ही महत्व दिया। कहाँ जन्मे? कब जन्मे? अथवा कितने बरस उस भूमि पर बसे रहे हो जिसकी नागरिकता लेना चाहते हो? ये सब शरीर के लक्षण हैं। उनमें मन के अथवा आत्मा के कोई लक्षण नहीं।
जो मनुष्य मन से किसी देश को और उसकी संस्कृति को अपना लेता है, वह वहाँ का नागरिक हुआ। इस सिद्धांत से बढ़कर और कौन-सा सिद्धांत हो सकता है? इसमें दिक्कतें अवश्य हैं। आज के संदेह और भययुक्त अंतरराष्ट्रीय वातावरण में इस सिद्धांत को गर्क हो जाने से कोई बली ही बचा सकता है।
मानव अधिकारों में आज एक नए अधिकार का समावेश जरूरी है। यह अधिकार अन्य किसी भी अधिकार से कम महत्व का नहीं है। यह मानवीय अधिकार है— हम चाहे जहाँ भी पैदा हुए हों, लेकिन हमें मरने का अधिकार वहाँ हो जहाँ हम चाहें।”
यह कहा था लोहिया ने आज से साठ साल पहले l
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