मानवाधिकार की लड़ाई लड़ने वाले इस अप्रतिम योद्धा -चितरंजन भाई

विदा चितरंजन भाई..!
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26 जून, 2020..! शाम को साढ़े 6 बज रहे थे. काफी देर से हम अपनी fb वाॅल नहीं देखे थे और जब देखे तो पहली खबर आनंद प्रकाश तिवारी की दिखी, जो चितरंजन भाई के निधन से जुड़ी थी. सहसा मुझे इस खबर पर विश्वास नहीं हुआ. हालांकि मैं जानता था कि उनकी तबीयत काफी खराब है. दो दिन पहले ही उन्हें बीएचयू के सर सुंदरलाल अस्पताल लाया गया था.


तत्काल मैने अपने मित्र पत्रकार जलेश्वर को फोन करके बताया कि ऐसी खबर है, क्या चितरंजन भाई का निधन हो गया ? वह गुस्से में आ गया और कहा कि उनसे पूछिए कि यह खबर कहां से मिली है ? अभी सुबह ही तो उनके भाई मनोरंजन सिंह से बात हुई थी. हमने आनंद जी को फोन करके पूछा तो उन्होंने बताया कि बलिया के बलवंत यादव की पोस्ट है. बलवंत को मैं जानता हूं, वह चितरंजन भाई को अस्पताल में भी देखने गए थे. तभी जलेश्वर का फोन आ गया और कहा, खबर सही है. उनके बारे में fb पर पोस्ट लिखिए.


चितरंजन भाई से मेरी पहली मुलाकात कब और कहां हुई ? यह अब ठीक से याद नहीं है. इलाहाबाद में पढ़ाई पूरी करने के बाद वे बलिया वकालत करने के लिए गए थे. मेरे पिता जी भी वहां वकील थे. उसी दौरान उनसे मेरी मुलाकात हुई थी. तब मैं बनारस में रहता था. बनारस में हम अस्सी पर रहते थे और मेरे घर उनका आना-जाना लगा था.


वह एक ईमानदार और मानवाधिकार के सजग प्रहरी थे. मार्क्सवादी चिंतक तो थे ही और भाकपा माले व आईपीएफ से भी जुड़े थे. वहां से मोहभंग होने पर PUCL से जुड़ गए और उत्तर प्रदेश में मानवाधिकार की लड़ाई के पहरुआ बन गए. जिंदगी के अपने व्यक्तिगत संघर्षों को उन्होंने जनता के दु:ख-दर्द से जोड़कर उसे व्यापक मंच दे दिया. यही वह ऊर्जा थी जो हमेशा उन्हें संघर्ष करने के लिए प्रेरित करती रहती थी.


मुझे याद है कि अस्सी पर जब भी सुबह मेरे घर वे आते थे तो दूर से ही आवाज लगाते थे कि अरे..! अभी तक सोए हैं. तब हम अखबार में काम करते थे और देर रात में घर आने के कारण सुबह 9 बजे तक सोते थे. मैं जानता था कि उनका व्यक्तिगत दु:ख मुझसे काफी बड़ा था, फिर भी हमेशा वे मेरे बारे में और बच्चों की पढ़ाई-लिखाई के बारे में पूछते थे. अक्सर तब वे घर पर मेरे साथ नीबू की चाय पीना पसंद करते थे.


उनकी व्यक्तिगत जिंदगी के बारे में न हमने कभी पूछा और न ही उन्होंने कभी कुछ बताया..! इसके बावजूद हम जानते थे कि उनके सीने में एक दर्द छिपा है, जिसे जन संघर्षों के बहाने वे भुला देना चाहते थे. कभी-कभी वह पीड़ा उनके चेहरे पर भी देखने को मिल जाती थी.


अस्सी पर अक्सर हम लोग पप्पू चायवाले की दुकान पर चाय पीते और वहां होने वाली बहसों में भी शामिल होते थे. वहां से हम लोग अस्सीघाट पर बतियाते हुए चले जाते थे. घाट की सीढ़ियों पर बैठकर चुपचाप गंगा की लहरों को निहारना उन्हें अच्छा लगता था. मुझे लगता था कि गंगा की जलधारा में वे कुछ खोज रहे हैं. अचानक उठकर कहते थे कि चलिए सुरेश भाई अब चला जाए. मुझे लगता था कि गंगा की लहरों में जो कुछ वे खोज रहे थे, वह उन्हें मिल गया है.


मानवाधिकार की लड़ाई लड़ने वाले इस अप्रतिम योद्धा की यादें ही अब शेष रह गई हैं. जिस लड़ाई को वे अधूरी छोड़ गए हैं, उसे पूरा करना ही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी. सबकी सीमाओं को वे जानते थे. इसके बावजूद संघर्ष में जो उनके साथ एक कदम भी चलना चाहता था, उसे जोड़ लेते थे. अनेक साथी उनसे जुड़े और बिछुड़ गए लेकिन इसका उन्हें कोई मलाल नहीं था. यही उनकी खूबी थी. 1995 में मेरे पिता जी के निधन के बाद से वह मेरे गार्जियन थे. उनसे जुड़ीं अनेक स्मृतियां किसी चलचित्र की तरह मानस पटल पर आ-जा रही हैं. मानवाधिकार के इस योद्धा को सादर नमन..!


#सुरेश_प्रताप